अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्रं | Anuttroppatik Dasha Sutram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५) “तएर्ण से भगवं जंबूजातसद्टे जावपज्जुवासमाणे एवं वयासि--उवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं , के अट्ठे पण्णत्ते ? एव॑ खह्ठु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं, एवं उवंगाणं पंचवग्गा पण्णत्ता ? त॑ जहानिरयावलियाओ १ कप्पवर्डिसियाओ २ पुष्फियाओ ३ पुष्फचूलियाओ ४ वण्हिद- साओ ५”--इ त्यादि । इस पाठ के आगे वर्गों के कतिपय अध्ययनों का वर्णन किया गया है । इस पाठ से यह स्फुट नहीं होसकता कि--ये उपांगों के पाँच वर्ग कोन फौन से अंगशासत्र के उपांग हैं। यद्यपि पूर्वांचायों ने अंग और उपांगों की कल्पना करके अंगों के साथ उपांग जोड़ दिये हैं, किन्तु यह विषय विचार- णीय है। कालिक और उत्कालिक संज्ञा स्थानांगादि शाक्त्रों में होने से बहुत प्राचीन प्रतीत होती है । किन्तु उपांगादि संज्ञा भी उपादेय ही है । अथवा यह विषय बिद्गुनों के लिये विचारणीय है । आचायेवर्य हेमचन्द्र जी ने अपने बनाये 'अभिधानचिंतामणशि' नामक कोप में अंगशास्नों का नामोछेख करते हुए 'केवल उपांगयुक्त अंगशासतर हैं' ऐसा कहकर चिषय की पूर्ति कर दी है। किन्तु जिस प्रकार अंगशास्रों के नामोछेख किए हैं, दीक उसी प्रकार किस किप्त अंगः का कौन कौन सा उपांगशास्र है, ऐसा नहीं लिखा है। इससे भी यह कल्पना अवांचीन ही सिद्ध होती है । हाँ ! यह अवश्य मानना पड़ेगा कि-- यह कल्पना अभयदेव सरि,या मलयगिरि आदि बृत्तिकारों से पूरे की है। क्योंकि उपांगों के इत्तिकार वृत्ति की भूमिका में उस उपांग का किस अंग से संबंध है, इस अकार का लेख स्फुट रूप से करते हैं। अतः बृत्तिकारों के समय से भी यह कर्पना पूर्व की है; इसलिए यह कल्पना श्रेताम्बर आम्ञाय में सर्वत्र भ्रमाणित मानी गई है। विधिविरुद्ध स्वाध्याय के दोष जिस प्रकार सातों खर,और रागों के समय नियत हैं--जिस समय का




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