लोक - विभाग | Lok - Vibhag
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
23 MB
कुल पष्ठ :
314
श्रेणी :
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No Information available about बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री - Balchandra Siddhant-Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand):प्रस्तावना [२५
है । इससे त्रिलोकसारके कर्ताके सामने तिलोयपण्णत्ती रही है व उसका उन्होंने पर्याप्त उपयोग
भी किया है, यह निश्चित प्रतीत होता है ।
जंबूदीवपण्णत्तीमें ऐसी कितनी ही गाथायें हैं जो त्रिलोकसारमें उसी रूपसे या कुछ
थोड़े-से परिवर्तित रूपसे उपलब्ध होती हैं । उसकी 'रचनाशली कुछ शिथिल भी प्रतीत होती
है । इससे अनुमान होता है कि उसकी रचना त्रिलोकसारके परचात् हुई है। भ्रन्थके अन्तमें
ग्रन्थका रने यह संकेत भी किया है कि जंबृद्वीपसे सम्बद्ध अर्थंका विवेचन प्रथमत: जिनेन्द्रने और
तत्पश्चात् गणधर देवने किया है। फिर आचार्यपरम्परासे प्राप्त उस ग्रन्थाथंका उ्पसंहार करके
मैंने उसे संक्षेपमें लिखा है * | इस आचार्यपरम्परासे कदाचित् उनका अभिप्राय आचार्य
यतिवृषभादिका रहा हो तो यह असम्भव नहीं कहा जा सकता है । कुछ भी हो उसकी रचना
विक्रमकी ११वीं शताव्दिके पूर्वमें हुई प्रतीत नहीं होती ।
अब चूंकि लोकविभाग (पृ. ६७) में ' उक्त च जम्बूद्वीपप्रज्षप्तौ ' इस प्रकार
नामनिर्देशपूर्वक उसकी एक गाथा उद्धृत की गई है, अत एवं उसकी रचना जंबूदीवपण्णत्तीके
पश्चात् हुई है; इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं रहता । अब यह देखना है कि वह जंबूदीव-
पृण्णत्तीके कितने समय बाद रचा जा सकता है। इसके लिये हमने अन्य ग्रन्थोंमें उसके उद्धरणोंके
खोजनेका प्रयत्व किया, परन्तु वे हमें कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सके। श्री श्रुतसागर सूरिने
अपनी तत्त्वाथवत्तिमें हरिवंशपुराण* और त्रिकोकसार आदिके साथ एक अन्य भौगोलिक
प्रन्थके अनेकों इ्लोक उद्धुत किये हैं । परच्तु उन्होंने कहीं भी प्रस्तुत प्रन्थके किसी
इलोककों उद्धृत नहीं किया* । कहा नहीं जा सकता कि उस समय तक प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना
ही नहीं हुई थी, या वह उनके सामने नहीं रहा, अथवा उसके इलोकोंको उद्धुत करना उन्हें
अभीष्ट नहीं रहा ।
८. क्या सर्वनन्दिकृत कोई लोऋषिभाग रहा है ?
प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तमें (११, ५२-५३) यह सूचना की गई है कि पूर्व समयमें पाण-
राष्ट्रके अन्तगंत पाटलिक नामके ग्राममें सर्वनन्दी मुनिने शास्त्र लिखा था, जो कांचीके राजा
सिहवर्माके २२वें वर्षमें शक संवत् ३८० (वि. सं ५१५) में पूर्ण हुआ । परन्तु यहाँ यह निर्देश
नहीं किया गया है कि उस ज्ञास्त्रका नाम क्या था तथा वह संस्कृत अथवा प्राकृत भाषामेंसे
किस भाषामें लिखा गया था । आज वह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं दिखता । जैसा कि इस प्रशस्तिमें
निर्दिष्ट है, उससे उक्त झास्त्रका नाम “लोकविभाग ” ही रहा हो, ऐसा सिद्ध नहीं होता ।
सम्भव है उसका कुछ अन्य ही नाम रहा हो और वह कदाचित् संस्कृतमें रचा गया हों। .
नी
देखिये जंबृदीवपण्णत्तीकी प्रस्ताववा पृ. १२९८-२९.
जंबृदीवपण्णत्ती १३, १३५-१४२.
त- वृ. ३-१०... ४. त. वृ. ३-६, ३८, ४-१३, १५.
ते. वु. ३-१० (सा. घ. २-६८); ४-१२ (जं. दी. प. १२-९३),
देखिये त्त्. तू, ३-९१, २, दे, ५, ६, १०, २७; ४- २४.
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