न्यायकुमुदचन्द्र भाग - 2 | Nyayakumudachandra Bhag - 2

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Nyayakumudachandra Bhag - 2 by न्यायचार्य महेन्द्र कुमार - Nyayacharya Mahendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ सम्पाद की यम्‌ ॥ सितग्पर सा्‌ १६३८ में न्‍्यायउुमुदच द का अपम भाग अशाशित हुआ था । करीय र| उर्प बाठ उसझा अगशिष्टाश दूसरे भाव के रूप में सम्पादित करके चित्त आनन्द से किसी अनिर्वचनीय उल्लाघता का अनुमर कर रहा है, सो इसलिए कि-इस भाग के सम्पादन का पूरा भार मुमे ही ढोना पड़ो है। इस भाग फो प्रथम भाग से भी अपरिक परिष्कृत तथा सामप्री- समृद्ध रुप में प्रस्तुत करने का श्रेय प्रथममाग के रतिक रिहू मण्डल को ही दिया जाना चाहिए । उन्हीं के सदमिग्रायों में इसके प्रेरणावीज निहित हैं । इस भाग का समग्पादन संशोधन ब०, आ० तथा श्र० प्रति के आधार से किया गया है। इनका परिचय प्रथम भाग के सम्परादकीय स्तम्भ में दिया जा छुक्ा है। ओरियण्डल बुक एजेंसी पूना के अध्यक्ष श्री देसाई ने कृषा करके न्यायकुमुदचन्द्र की एक अधूरी प्रति हमारे पु मेजी थी, उसका भी यथावस्र उपयोग किया है। इस भाग के ठिप्पणों में प्रथम भाग में उपयुक्त अन्धों के सिपराय प्रमाणय्रार्तिफखबृत्ति, प्रमाणयार्तिरखबत्तिटीझा, प्रमाणयार्तिर- मनोश्थनन्दिनीशृत्ति जेसे दुर्लभ प्रषों के प्रूफ तथा हेतुबिडम्पनोपाय, हेतुबिन्दुटीफा, सिद्धिविनि- श्वयटीका, सत्यशासनपरीक्षा, न्यायतिनिश्चयगिपरण जैसे असम्य लिखित ग्रथों का भी उपयोग किया गया है। अर्थोद्दाटन करने जले विष्पण मी पर्याप्त मात्रा में लिखे गये है । टिप्पणों में समस्त दर्शनशां्रों के प्रमुख म्रस्थों से की गयी बहुमुखी तुलना से जिश्ञा्ु पाठकों को न केवल ग्रन्थ के हार्द को ही समझने में सहायता मिलेगी जिम्तु प्रत्येक दार्शनिक मुद्दे के ऋमत्रिकास का सारा इतिदत्त इष्टिपठ पर अड्डित हो सकेगा । वीरहिमाचल से निऋली हुई अधमागघीमय स्याह्माद-वाणी की धारा कितने उच्चायच दर्शनस्थानों से बहुकर उन्हें सम बनाती है तथा क्रितनिक समातभद् सिद्धसेन पूज्यपाद मल्लयादि अकल्स जिनभद्र दसिमिद्र विधान-द जसे तीयें पर मिलने वाले सहायक्नदीकब्प दार्शनिकयादों के खच्छ युक्तिमलिल- सभार से समृद्ध बनती है । आज वह इस विकसित दाशनिक रूप में एकान्तयाद के कद!ग्रद्द से सम्तप्त जिज्ञासुओं को शीतल, समन्वयकारक, मानसभअहिंसा के प्रतिरूप, अनेझान्तवाद- रूप जीउन से जक्य क्षाघयायक छुपमा का सहज भायर से अनुभय कराती है। वीर द्विमाचल की वह बाग्गगा प्रभाचन्द्र के न्‍्यायकुमुदचन्द की पूण विकसित य्योस्रा में आज काशी की गगा की तरह घीर और उदात्तमात से वह रही है। उसके उदर में कितनी ऐतिहासिक घटनाएँ द्वव्य में पर्योय या उद्दाम जबानी में छोल बालमाय की तरह द्िपी पड़ी हैं | उसमें कितने उच्चातच शिलासण्डकन्य दाशनिम्वाद आज रेत बनकर तदात्म हो रहे हैं। इस सब ऊमविकास की घारा का यत्किश्चित्‌ आमास इन टिप्पणों में की गयी वहुगामी तुलना से नल




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