आर्य-जीवन [उत्तरार्ध ] | Aarya-Jeevan [Uttarardha ]

Aarya-Jeevan [Uttarardha ] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छः दिव्य जीवन। नो चेदनृत्पच्न्ते न धर्महानिर्भवाति | ४। ( आपस्तम्व धर्म सूत्र प्रश्ष २ पटक ७ सूचर १०१४ ) धर्माचरण किसी छोकिक अर्थ को रक्ष्य में रख कर न करे ॥ १ ॥ क्योोंके ऐसे धर्म परछाक में निप्फछ होते हैं | रा।। जता कि आम का हृक्ष फल के लिए रगाया जाता है, (न कि छाया और गन्ध के लिए ) पर छाया और गन्ध मुफ्त में मिल जाती हैं। इसी प्रकार धर्म पर चलने में ( लोकिक ) अर्थ मुफ्त में मिल जाते हैं ॥ १॥ और यदि नभी मिलें, तो - भी धमम की हानि नहीं होती ( धर्म स्वये एक उच्च फल है, और दिव्य फलों का उत्पादक है, छाक्रिक फल उसके सामने तुच्छ हैं ! आम छगाने वाले भी ऋहुतेरे ठोग फूछ के भागी: ही होते हैं, छाया गन्ध दूसरे लूटते हैं, वा छाया गन्ध औरों के साथ उनके सांझे होते हैं ) दिव्य जीवन के | पूर्व कूद आए हैं, कि दिव्य जीवन के तीन तीन अद्भ हैं, कमे, उपासना और ज्ञान । अब ऋरमशण; इस द्ीनों का वर्णन करेंगे । कर्म-काण्ड । श्रद्धा-भर् कार्यों के पूरा करने के छिये श्रद्धा बढ़ा भारी वछ है | श्रद्धा. वद आत्मवल-है, मिससे दुष्कर घुकर ओर दुर्लूथ मुखभ हो जाता है। श्रद्धा ही है, जो मलुष्य को व.भी गिरने नहीं देती । देखा वह कोनसा आतबल है ! जो अपनी युवात्त आर रूपवती भी भगिनी के पास आता के मन भें कोई विकार उत्पन्न हाने नहीं दता.। यह धर्म पर श्रद्धा है। जिस के हृदय में यह परिपूर्ण है, उस के लिए केवल एक अपनी प्ल्नी को




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