तत्त्वनिर्णयप्रासाद | Tatttvanirnayaprasad

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Tatttvanirnayaprasad by मुनि श्री वल्लभ विजयजी - Muni Shri Vallabh Vijayji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमस्तम्भ :। ७ एक श्री स्कंदिलाचार्यहि रह गये थे, तिनोंने मथुरा नगरीमें फेर अनुयोग प्रवत्तन करा, इस वास्ते “माथुरी वाचना कहते है जो सृत्रार्थ श्री स्कटिलाचायेने संधान करके कंठाम्र प्रचलित करा था, सोही श्री देवछिंगणिक्षमाश्रसणजीने, एक कोटी (१००००००० ) पुस्तकोमे आरूढ करा. सो ज्ञानमतोके झगड़ोसें ओर सुसलमानोके राज्यके जुरूमोंसें लाखो अ्ंथ जाए गए, ओर लाखो मंथ जेनी छो- कोकी अज्ञानतासे उद्धारके विना कराए, पाटणावि नगरोमे भुसकी तेरे ताडंपन्नके पुस्तकोके चेरेसे कोठे कीतने भरे हे इतिहासतिमरनाशकके रचनेवालेका ऐसा कथन है, कि अब भी जो पुस्तक जैसलमेर, खंभात, पाटण, अहमदावादादि स्थानोंमे विद्य- मान हे, वे पुस्तक देखने वेदिक मतवालोके नसीबमें भी नही है पूर्वपक्षः-जव जैनमतके चौढह पूर्वधारी, दश पूर्वधारी, विद्यमान थे, तबसेही” जेकर ग्रेथ लिखे जाते तो जैनसतका इतना ज्ञान काहेको नए होता ? क्या तिस समयमें छोक लिखना नही जानते थे ९ उत्तरपक्ष /-है प्रियवर! पूर्वोक्त महात्माओके समयमे किसीकी भी शक्ति नही थी, जो संपूर्ण ज्ञान लिख सक्ता ओर ऐसे ऐसे चमत्कारी विद्याके पुस्तक थे, जे गुरु योग्य शिप्योके बिना कदापि किसीकों नहीं दे सक्ते थे, वे पुस्तक केसें लिखे जाते? ओर बीजक मात्र किंचितू लिखे भी गए थे यह नहीं समजना कि तिस समयमे लोक लिखना नही जानते थे. क्योकि, (७२) बाहर कलछाओमे प्रथम कला लिखतकी है और थे वाहत्तर (७२) कला इस अवस- प्पिणी कालमे प्रथम श्री ऋषभदेवजीने अपने पुत्र और प्रजाको सिख- लाई जिसमें लिखत भी श्री ऋषभदेवजीने, (१८), अष्टाबश प्रकारकी सिखलाई, वे अठारह भेद लिपिके आगे लिखते हे. न्राह्षी लिपि १, यचन लिपि २, दोपऊपरिका लिपि ३, वरोहिका लिपि ४, खरसापिका लिपि ८, प्रभारात्रिका लिपि ६, उच्चतरिका लिपि ७, अक्षरपुस्तिका लिपि ८, भोगयवत्ता लिपि ९, वेदनतिका लिपि ३०, निन्‍्हतिका लिपि ११, अंक लिपि १२, गणित लिपि १३, गाँधर्व लिए.




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