आजादी का आन्दोलन और अलवर | Azadi Ka Andolan Aur Alawar

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Azadi Ka Andolan Aur Alawar by हरिनारायण सैनी - Harinarayan Saini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सकता है । इसके लिए 1837 से ही विभिन्न वर्गहितों से सम्बद्ध संस्थाएँ गठित की जाने लगी। बंगाल, बिहार, उड़ीसा के जमींदारों के हितों की रक्षा करबे वाली पहली सार्वजनिक संस्था लैंड होल्डर्स सोसायटी ' का गठन 1837 में किया गया। इसके बाद 1843 में सामान्य सार्वजनिक हितों को साधने के उद्देश्य से 'बंगाल ब्रिटिश इंडियन सोसायटी” का गठन किया गया। इन संस्थाओं को भूमिका विरोधात्मक न होकर सुधारात्मक एवं निवेदनपरक थी। 1857 के बाद शिक्षित भारतीयों और अंग्रेजी-शासकों के बीच की खाई चौड़ी होती गई। दादाभाई नौरोजी ने अपने अर्थशास्त्र सम्बंधी लेखों में यह स्पष्ट किया कि भारत की दरिद्रता का कारण है- ब्रिटिश शासक वर्ग ट्वारा भारत का शोषण इन्होंने 1866 में “ईस्ट इंडियन एसोसिएशन” नामक संस्था की स्थापना की और राष्ट्रीय आंदोलन के लोकप्रिय नेताओं में प्रमुख बने। 'पूना सार्वजनिक सभा! की स्थापना करके जस्टिस सनाडे ने राष्ट्रीय समस्याओं को अभिव्यक्ति दी। बंगाल में 1876 में सुरेद्धनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बोस के नेतृत्व में 'इंडियन एसोसिएशन' नामक संस्था की स्थापना की गई। 1881 में “मद्रास महाजन सभा' और 1885 में “बम्बई प्रेसिडेंसी एसोसिएशन बनी। इस तरह क्षेत्रीय स्तरों पर विभिन्न सार्वजनिक संस्थाएँ बर्नीं, किन्तु अखिल भारतीय स्तर के संगठन के रूप में पहला संगठन- ' भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' दिसम्बर 1885 में बना। इतिहास की यह विडम्बना और विचित्र गति ही है कि इसकी स्थापना का श्रेय एक रिययर्ड अंग्रेज अफसर ए. ओ. ह्यूम को है । दिसम्बर 1885 में बम्बई में इसका पहला अधिवेशन हुआ, जिसकी अध्यक्षता उमेश चंद्र बनर्जी ने की। इसमें 72 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस राष्ट्रीय संगठन के उद्देश्यों में मुख्य थे- देश के विभिन्न भागों के राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं के बीच 'एकता कायम करना, जाति, धर्म या क्षेत्र (प्रांत) की संकीर्ण भावना के विरुद्ध राष्ट्रीय आधार पर सभी की एकता फा विकास, जनता की माँगों का सूत्रीकरण और उनका सरकार के सामने प्रस्तुतीकरण तथा देश में जनमत का प्रशिक्षण व संगठन करना | दरअसल , इस संगठन के माध्यम सै अंग्रेज शासक वर्ग यह चाहता था कि भारतीय जनता के असंतोष को पहचान कर, शिक्षित वर्ग को संतुष्ट रखते हुए किसी चरह के जन-विद्रोह की न भड़कने दिया जाय। किन्तु इतिहास की गति सदैव शासक वर्ग के अनुसार ही नहीं चलती है। सत्य तो यह है कि उसे चलाने में उत्पादन-कार्यों में लगी हुई मेहनतकश जनता का योगदान ही मुख्य होता है। जागरूकता एवं चऔतना के अभाव, संगठन विहोनता और शासन-सच्ता के दण्ड-दमन के डर और कुछ लोगों को सता द्वारा पद और पूँजी के प्रलोभन से भेदनीतिकृत विभाजन की वजह से सामान्य जनता सत्ता के आदेशों का पालन करने को वाध्य होती है। जब उसके भीतर चेतना आ जाती है, वह संगठित हो जाती है, तथा कुछ लोग अपने जीवन तक का बलिदान करने को तैयार हो जाते हैं, तो सत्ता का सिंहासन डोलने लगता है। हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के दूसरे चरण की कहानी यही है। + उन्‍्नीसवों सदी के उत्तराद्ध में एक ओर तो भारतीय जनता की राजनीतिक चेतना का अभ्युदय हुआ, दूसरी ओर सामाजिक-वैचारिक स्तर पर सुधायत्मक एवं जागरणात्मक उपायों का एक गंभीर सिलसिला आरंभ हुआ। इन दिनों एक वरह से मुक्ति का एक समग्र आन्दोलन चला। अब केवल पुरुष वर्ष ही नहों, पढ़-लिखकर स्त्रियाँ भी मुक्ति-आन्दोलन में भाग लेने 'लगीं। 1890 में कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम महिला स्नातक कादम्बिनी गांगुली ने कांग्रेस 49




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