मानव अर्थशास्त्र | Manav Arth Shastr

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Manav Arth Shastr by नरहरि द्वारकादास परीख - Narahari Dvarakadas Parikh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्‌ अथज्ञास्त्र बया हू? भनुष्यकों आवः्यफ्तायें ३ हर मनुष्यकों पेट मर खाता चाहिये शरीर्त्री रतावे लिए वपदे चाहिये और रहनेवो मवान चाहिय। सम्य मनुप्यके जीवनवी ये प्रायमिव आपश्यकतावें मानी जाती हू। इनके बिना जीवन टिवा' नहीं सवता। मनुष्य चाह जिस स्थिति रहता हो परन्तु इतनी चीजकि बिना उसबा काम चल ही नहीं सक्ना। अपने जीवनवी इन प्रायमिक आवद्यक्ताअकि थारेमें भी कोई गोगी यति या अवपूत बेपरवाह हो सकता है, परन्तु ऐसे छोग विरले ही हात हू। अत वे अपवाद मान जायगे ।उपाणानर छोगांवा तो पहली चिन्ता अपने जीवनको इन प्राथमिक आव यवताआकी ही बरनी पढ़ती है। काइ मा समाज सुब्ययम्पित और सुती तमी हु सखुवता हैं जब उस समाजमें 'रहनवाल सभी जोगाकी ये प्राथमिक आवश्यक्तायें अच्छो तरह पूरी हा! जाय) छेक्नि भनुष्ययों अपनी प्रायमिक आवश्यत्रत्वाें पूरी हो जानसे ही कभी सतोप नहां होता। अन्य कई सुविधायें पटा करनके लिए और अपने शरीरकी तथा आसपासवी चीजाबी शोमा और सजावट बढानेंके लिए. भी आरभस ही। उसकी कोशिश रही है। रोदीव! हायमें रफ़बर झारेसे भी भूख तो मिट जाती है पर मनुष्य एसा बरता नदही। बह छानवी चीजें अच्छा तरह रखनेके लिए भाली बनाता है सानेका तरल चीजांबि छिए कटोरी रखता है भाजतर लिए बढनतों पार्ट या दूमरे आप्नन जुटाता है। इस तरह बह अपनी आवश्यवतायें पूरी बरेके प्रत्यया कायमें सुविधाव' साधन बटावा जाता है ओर उसीबे साथ साथ उनमें सुस्तरता और कशावी चुद्धि करनेकी तरफ भी उसवा शुताव रहता है। इस दरह जसे जमे समाज जागे बढ़ता है बस वसे मनुष्यकी आवश्यकतायें बत्ती तामी ह और उहें पूरी करनेवे शिए वह अपनों प्रउत्ति भी बहता जाता है। २ मनुष्य अपना आवशयक्‍तायें बाज जाय, इसे आजरे अथवास्त्री संम्यदा और प्रयतिकी निभ्रती मानते ६। ऐेडिन आवश्यवतायें बढ़ाते जाना ओर उनको पूरा करनके पीछे ही पड़े रहता मनुष्य-जोवनका सच्चा ध्येय डे




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