त्रिपदी | Tripadi

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Tripadi by आशापूर्णा देवी - Ashapoorna Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुरभि उत दोनो के आकर्षण का बिंदु थी। उसो को लेकर उनकी मत्री पूर्ण होती थी। उसकी अनुपस्यिति में दोनों विचलित हो उठते थे 1 सुरभि की उपस्थिति मे दोनों यह बात उससे स्वीकार करते थे । उनमें से एक कहता--'ओह, कल तुम्हारे विरह में शाम ही वेकार हो गई 1” कितु शुकात पाकर उनमे से कोई भी उससे प्रेमनिवेदन नहीं कर डालता था । और सुरभि? उसको उन दोतों के ही प्रति समान आकर्षण का अनुभव होता था । इसीलिए जब उनमे से किसी को देखती उसका मुंह उज्ज्वल हो उठता, वह बोलतो--'ओफ्‌, इतनी देर वाद आना हो रहा है? यहा अगोरते-अगोरते**च इसी प्रकार उनकी दोस्ती तीन बरस पुरानी हो चली थी। लगता था वे 'रात-भर ऐसे ही पैदल चलते रहेंगे, किंतु ऐसा नहीं हुआ | एक पतली-सी गली के नुक्‍कड़ पर सुरभि रुक गई और उसमे कहा--रहने दो इस नरक में तुम लोगों को जाने की जरूरत नहीं है। पफिर घोड़ा हंसकर बोली--'तो फिर वही बात तय रही ? उन दोनों ने भी हूंसकर कहा--'हां, वही वात तय है !! इसके बाद अतीश और सदीप में भी विच्छेद हुआ। अलग होने के पहले अतीश ने बधु से कहा--'भाज तो डाट पड़ेगी ? मेरे बारे मे डांट-फटकार की बात नहीं उठती ।/' 'फिर भी आज तो स्पेशल बात थी । “परत, कितनी स्पेशल बातें पार कर गया हूं । मुझे तो सोच-सोचकर आनन्द आ रहा है कि इस समय घर पर अभ्यागतों को भीड़ नहीं होगी ।' “रहने से भी क्‍या नुकसान है ?' बाप रे, तू तो जानता है मुझे वह सव नीला-पीला, चकमके, क्षतमल, » चिकन, सैटिन वगेरह देखते ही परेशानी होने लगती है। मेरा हृदय घंडकने लगता है ।' “यह तो है कितु तेरे भैया-भाभी *




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