आरोग्य - दिग्दर्शन | Aarogya Digdarshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हमारा दारीर । दे तोर पर काम कर सकते है जो विपयासक्त नही है जो न बहुत मोटा है ओर न बहुत दुबछा ओर मन तथा इद्रियोँ जिसके सदा अधीन बनी रहती हैं । ऐसा आरोग्य सम्पादन करना ओर उसकी रक्षा करना सहज नहीं है। हम ऐसे आरोग्यका उपभोग नहीं कर रहे हैं -क्योंकि हमारे माता-पिता भी उसका उपभोग नहीं करते थे । एक प्रसिद्ध छेखकने लिखा है कि यदि माता-पिता सब प्रकारसे योग्य हों तो उनकी सन्ताति उनसे भी बढकर होनी चाहिए । यादि यह वात ठीक न हो तो इस किचारके माननेवाठोंको अपने क्चिार छोड़ देने पढ़ेंगे कि दुनिया उन्नति कर रही है । जो मनुष्य पूर्ण निरोग हे उसे मौतका कोई भय नहीं होता । हम जो मौतसे डरते है यही ढर तो इस बातकों बताता है कि हम निरोग नहीं है । मौत तो हमारे जीवनका एक बड़ा भारी परिर्तन है आर सृष्टिनियमके अनुकूल वह परिवर्तन उत्तम ही होना चाहिए । ऐसे उत्तम आरोग्यको सम्पादन करनेके छिए प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है । हम आगे वल कर इस वात पर विचार करेंगे कि शेसा आरोग्य कैसे प्राप्त किया जा सकता हे और कैसे उसकी रक्षा हो सकती है । ९ हमारा शरीर । ्रथ्वी पानी पवन त्यों तेज ओर आकास । हैं पॉचों ही तत्त्व ये इनका जगत विकास ॥ करके शरीरका वर्णन इस दोहेंगें आ जाता है । श्रथ्वी जठ तेज वायु और आकाश इन पॉचों तत्त्वॉंको मिला कर जो सेठ प्रकृतिने और प्रकृतिके कर्ताने किया हे उसे हम जगतके नामसे जानते है । जिन वस्तुओंसि जगत बना हे उन्हींसे यह मिट्टीका पुतढा-- जिसे हम शरीर कहते है--बना है। एक कहावत हे कि यथा पिंडे तथा




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