प्रशस्ति संग्रह | Prashasti Sangrah

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Prashashith Sangrah by

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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) * प्रस्तावना डई प्राचीन काल मे मुद्रण यन्त्र (छापासाना) के आविष्कार के पहिले मनुष्य ने पत्रों (ताम्रपत्र न ताडपन्र) तथा कांगर्जों पर हाथ से लिस लिग्य कर ही अपने साहित्य एव ज्ञान की वृद्धि की थी । उस समय भी भारत में सेकडो एवं हजारों विद्वाना ने जन्म लिया और अपनी लेखनी से भारतीय साहित्य के सभी अंगो को परर्ण किया | हाथ से लिसने के :स युग मे शास्त्र मण्डारों एवं पुस्तकालओों की संख्या पर्यीप थी ।' प्रत्येक नगर एवं गाव में मन्दिरों तथा अन्य घर्मस्थानों में शास्त्र भण्डार होते थे जिनका प्रत्येफ सनुप्य पठन पाठन के लिये उपयोग कर सकता था। कि जैनाचार्या ने दान के चार भेढो में शास्त्रदन को सम्मिलित किया और इसी के सहारे जान के विशिष्ट साधन पुस्तकों के लिखने लिखवाने को श्रात्रकों के देनिक जीवन में उतारा। जिस त्तरह मन्दिय को बनवाने एवं प्रतिमाओ की प्रतिष्ठा करवाने में पुण्यल्ाभ घबतलाया उसी गश्रकार शास्त्रों को लिसकर अथवा लिसया कर शास्त्रमण्डारों को भेट करने मे भी कम पुए्यलाभ नहीं बतलाया । यही नहीं, फिन्तु जितनी भक्ति वे श्रद्धा उपास्य देवताओं भें रखने के लिये उपदेश द्विया उतनी ही श्रद्धा व भक्ति शास्त्रों के प्रति भी प्रदर्शित करने को कहा | जैनाचार्या के इस उच्चतम उपदेश के फारण ही आज़ हमे प्रत्येक मन्दिर में शास्त्रभण्डार के दशन होते है अन्यथा हजारो वर्षा से राज्याश्रयहीन जन चर्म का साहित्य आज़ उस विशाल मात्रा भम नजर नहीं आता। श्रद्धालु क्षावकों ने आचाया के इस उपदेश को अक्तषरश पालन फ्िया और अपने जीयन अथवा द्रव्य का बहुत भाग इस पुण्य काय से भी व्यत्तीत किया । शास्त्र लिखने और लिसवाने में साधुओं और ग्रहस्थों का समान हाथ रहा है । साधुओं ने हजारों शास्त्र लिखकर जैन बाइमय की बृद्धि की तथा क्रावकों ने शास्त्रों की प्रतिलिपिया करवाकर उसका अत्याधिक प्रचार किया और साधुओं स अनुरोध करके नवीने साहित्य का निमोण भी फरवाया। जैनों का अधिशाश गअपभ्रश ण्व हिन्दी साहित्य का निर्माण इन्हीं क्रावकों फे अनुरोध एवं भक्ति का परिणास है। दो अकार की प्रशल्तिया इस सम्रह में दी गई है1 एक तो वे जो स्थय कबि अथ्द्या प्रस्थक्ता द्वारा लिखी गयी है तथा दमसरी वे जी लिपिकारों ने लियी ह । पहिली का नाम प्रन्ध प्रशर्ति तथा देससी पा नाम लेखक प्रशस्ति है। मन्ध प्रशस्ति से कवि का परिचय, भद्टारक परम्परा का उन्लेख, तत्कालीन भट्ार का नाम ; देश व स्थान वे समय का निर्देश तथा वहां के शासक का परिचय आदि दिये #थ होते है। लेसफ प्रशस्ति में सबसे पहिले समय. फिर प्राम व नगर का सलाम, यहा के शासक का नाम, उसके पस्चान भद्गारर परम्परा का उल्लेप तथा तत्कालीन भद्टारफ का नाम, एसऊ पर वात लिपि ऊरवाने वाले का यिल्तूत वश परिचय, लिपि किस निमित्त से करायी गयी और अन्त में लिपि का नाप दिया हुआ मिलता हैं । किसी पशरि मे निर्टिए बातों से कम अबबा ज्यादा का भी वर्णन मित्र जाता है । प्रन्ध छत्ता जेब साथ अबबा भट्गारक होने है ता वे अपना बंश परिचय नही लियने पिन्‍्तु हिल श्पाया ५ अधया भद्टारफ के शिष्य हांत हैं उसका ही परिचय लिखते ६। संस्कृत प्रन्धो पी शवियाश प्रशम्निया इसी




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