अष्टग्हृदयस्य | Ashtangahradayam (vaidhak Granth)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
873
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(३)
कन्यान्तःपुरवाधनाय यदधीकारानन दोषा नुप्थ
दी. मन्ध्रिप्रवरश्च तुरुयमगदज्भारश्य तायूचतुः।
देवाकरणणय सुशुतेन चरकस्योक््तेन जाने$खिलम्
स्यादस्यथा नकद घिना म दलने तापस्य कोडपीश्वरः ॥
रूघुमंजूपा में प्रसिद्ध वैयाकरण आचायें श्री नागेशभट्ट की उक्ति तो संस्कृत
के बुधवरों को आयुर्वेद ज्ञान के लिए आह्वाव कर स्पष्ट रूप से उत्साहित कर
रही है। भट्टाचार्य जी ने आप्त का लक्षण प्रदर्शित करने के अनन्तर 'इति
चरके पतण्जलि:” लिखा है। प्र॒राणों, घर्मशास्र एवं दर्शवशात्रों मे भी आयुर्वेद
के विषय पाये जाते हैँ ॥ इस प्रकार प्राचीन संस्कृत के सभी विद्वानु आयुर्वेद
ज्ञान से सम्पन्त थे । सत्य तो यह है कि आयुर्वेद का मामिक ज्ञान संस्द्ृतन्नो
को ही सुगम एवं सुलम है, क्योकि आयुर्वेद संस्कृत भाषा में ही मौलिक रूप में
है। भंतः आधुनिक सस्कृत के कोविदो के प्रति मेरी सौख्यदायिनी सम्मति हे
कि वे अष्टाड् हृदय अथणा चरकसंहिता का स्वाध्याय कर अनुभव करें कि कितता
भानन्द आता है ।
कुछ लोग वो भायुवेंद-प्रवर्तंक ऋषियों की पडक्ति में वाग्भठ को कलियुग
का ऋषि मानते हुए कहते है कि---
'अब्रि/ कृक्तयुगे चैव द्वापरे सुश्रुतों मतः
कलो वाग्मदनामा चेत्यायुवेदप्रवर्तका:।
इसमे वाग्भट का अत्यन्त श्रामाण्य स्वीकार किया गया है।
बारभठ का परिचय
ऐसी किंवदस्ती है कि वाग्भट सिन्धु देश के निवासी ब्राह्मण तथा बैदिका-
चार परायण थे। पीछे विशेष विद्या के सीखने के लिए किसी बोदाचाय॑ से
बौद्ध धर्म को दोक्षा ली । अष्टाज् हृदय में ही वाग्मट के बौद्ध होने का प्रमाण
उपलब्ध है | ५
(१ ) बश्जुहृदय के मज्भलाचरण में किसी विश्येप देवता का नाम थे
होना ।
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