श्री विदग्धमाधव नाटक | Shri Vidagdhmadhav Natak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अवतरणिका रू करणामय भगवास्‌ श्रीकृष्ण चंतन्य देव की अनुकम्पा से श्री विदग्ध- माधव सामेके नाटक का मनोरम सस्करण अकाशित हुआ ॥। इस अनुपम अन्य के रवेयिता भक्तिरस्त-प्रस्याताचार्य सुप्रशिद्ध नामा श्रोरूप गोस्वामी है । आप श्री चैतस्पदेव के केवल परिकर ही नही थे किन्तु श्रीचेतन्य देव के क्रमीष्ठ सस्थापक तो ये ही,साय ही श्रीचंतन्य देंच कै प्रिय स्वरूप, दयित- स्वरूप, प्रेमस्वरूप, सहजातिरूप, निजानुरूप, अभिन्नरूप, तथा स्वविलास रूप भी ये। श्रीचैतन्यद्रेव से उपदेश प्राप्त कर कालवश लुप्त हुई श्रीवृन्दावन को रसकेलि वार का -पुन प्रकाशन सवप्रथम आपने ही किया है। आपका चरित्र श्रीचेतन्य चन्द्रोदय नाटर, श्रीचेतन्यवरितामृत आदि भ्रन्थों मे सुविस्तृत रूप से वर्णित है। प्रस्तुत ग्रन्थ की रचता १५८० सम्बत्‌ में गोच्चुल मे हुई एवं नाटक का नामकरण * विदग्धमाधव” हुआ । विदग्ध शब्द का अर्थ रसिक, निपुण, पारज्भत, सर्वमनोहर तो सुप्रसिद्ध है ही किन्तु विदग्ध शब्द का अर्थ अ्न्यकार के मत में चतु पष्ठि कलान्वित है । सुरम्य मधुर सर्वसल्लक्षणान्वित, बलींयानू नवतारुण्य, वाबहूक, प्रियवद, सुंघी, सुप्रतिम, धीर, विदग्ध, चदुर, सुंखी, इतज्ञ दक्षिण, प्रेमवश्य, गम्भी रताम्बुधि वरीयान्‌, की तिमाचु, नारीमोहन, नित्य- नूतन, अतुल्यकेलिसींदयें, प्रेठ वशीस्वनान्वित गुणयुक्त विशेष प्रेमानन्दरसो के उत्ताल तरज्भूमय महावारिधि थीराघाविदात्त विच्छेद चिल्धित-माघव हैं श्रीमान्‌ गोकुल-युवराज 1 अ्रव्य दृश्य भेद से काव्य दो प्रकार का हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ रज्ालय मे अभिनय के योग्य दशविध रूपकर्म प्रथम व प्रधानतम है प्रन्थकर ने साहित्य दर्पण की प्रक्रिया के वर्जनपूर्वक श्रीभरतमुनि के मत से नाटक चन्द्रिका!




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