कार्तिककेयानुप्रेक्षा (1978) ए सी 5754 | Karttikeyanupreksa (1978)ac 5744

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Karttikeyanupreksa (1978)ac 5744 by ए. एन. उपाध्याय - A. N. Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्र -- कात्तिकेयानुप्रेश्षा -- सम्मेलन हुआ था । इस सम्मेलनके सभापति डाक्टर पिटर्सन नियुक्त हुए थे । भिन्न भिन्न जातियोके दर्शकों में से दस सज्जनोंकी एक समिति सगठित की गई। इन सज्जनोंने दस माषाओंके छ छ शब्दोके दस वाक्य बना कर रख लिए और अक़मसे बारी बारीसे सुना दिए । थोडेहो समय बाद इस हिन्द युवकने द्शंकोंके देखते देखते स्मृतिके बलसे उन सब वाक्योंको क्रम प्रवक सुना दिया । युवककी इस शक्तिको देखकर उपस्थित मंडली बहुत ही प्रसन्न हुई । इस युवाकी स्पर्यन इस्द्िय और मन इचन्द्िय अलौकिक थी । इस परीक्षा के लिये अन्य अध्य प्रकारकी कोई बारह जिल्दे इसे बतलाई गई और उन सबके नाम सुना दिए गए । इसके बाद इसकी ऑखोपर पढ़ी बाँध कर इसके हाथोंपर जो जो पुस्तक रक्खी गई, उन्हें हाथोषे टटोलकर रस युवकने सब पृस्तकोके नास बता दिए ॥ डॉ. पिंट्सनने इस युवककी इस प्रकार आश्रर्यपूर्ण स्मरण शक्ति भीर मानसिक शक्तिका विकास देखकर बहुत बहुत धम्पवाद दिया, और समाजकी ओरसे सुवर्ण - पदक और 'साक्षातु सरस्वती' की पदवी प्रदान की गई । उम समय चार्ल्स सारजट बम्बई हाईकोर्टके चीफ जस्टिस थे । वे श्रीमदूजी की इस शक्ति से बहुत ही प्रभावित हुए । सुना जाता है कि सारजट महोदयने श्रीमद्जी से इग्लेड चलनेका भाग्रह किया था, किन्तु वे कीतिसे दूर रहनेके कारण चात्मं महाशयकी इच्छाके अनुकूल न हुए अर्थात्‌ उग्लेंड न गए ।”' इसके अतिरिक्त बम्बई समाचार आदि अखवारोंमे भी इनके शतावधान के समानार प्रकाशित हुए थे । बादमे, झनावधानके प्रयोगोको आत्मचिन्तनमें अन्तरायरूप मान कर उनका करना बन्द कर दिय। था । उससे सहजमे टी अनुमान क्रिया जा सकता है कि वे कीति आदिस कितने तिरपेक्ष थे । उनके जीवतमें पद पद पर सच्ची घामिकता प्रत्यक्ष दिखाई देती थी । वे २१ वर्ष की उम्रमे व्यापारार्थ ववाशियासि वम्नई आए । वहां सेठ रवाशंतर जगजीवनदासकी दुकान में भागीदार रहकर जवाहरातका धन्धा करते रह । व्यापारमे अत्यस्त कुशन थे । ज्ञानयोग तथा कर्मयों गका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था । व्यापार करते हुए भी श्रीमदूजी का लक्ष्य आत्माकी ही भर विशेष था। इनके ही कारण उस समय मोतियों के बाजारमे श्रीयुतत रेवाशकर जगजीवनदासकी पेड़ी नामी पेढीयोमें एक गिनी जाती थी । स्वयं श्रीमदूजीके मागीदार श्रीयुतत मा्णिकलाल घेलाभाईकों इनकी व्यवहार कुशलताके लिए भपूर्व सन्मान था । उन्होंने अपने एक बक्तव्य में कहा था कि--“श्रीमदू राजचन्द्रके साथ मेरा लगभग १४५ वर्ष तक परिचय रही, और उसमे सात आठ वर्ष तो मेरा उनके साथ अत्यन्त परिचय रहा था । लोगोमें अति परिचयसे परस्परका महत्त्व कम होजाता है, परन्तु मै कहता हूँ कि उनकी दशा ऐसी भआत्ममय थी कि उनके प्रति मेरा श्रद्धा भाव दिन प्रतिदिन बढता ही गया । व्यापारमें कठिनाइयाँ आती थी, उनके सामने श्रीमदु जी एक अडोल पवंतके समान टिके रहते थे । मैने उन्हें जड़ वस्तुओकी चिन्तासे चिन्तातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे। किसी विषय मे मतभेद होने पर भी हुदयमे वैमतस्य नहीं था स्व पूर्व सा व्यवहार करते थे ।”' श्रीमद्‌ जी व्यापारमे जसे निप्णात थे उससे अत्यन्त अधिक आत्मतत्त्वमे निप्णात थे । उनकी अन्तरात्मा मे भौपिक पदार्थोको महत्ता नहीं थी, वे जानते थे, धन पाधिव शरीर का साधन है, परलोक अनुयायी तथा आत्माकों शाश्चत शान्तिप्रदात करने वाला नदी है । व्यापार करते हुए भी उनकी अस्तरात्मामे वेराग्यगगा का अखपड प्रवाह निरन्तर वहता रहता था । मनुष्य भवकें एक एक समयको वे अमूल्य समझते थे । व्यापार से अवकाश मिलते ही वे कोई अपूवे आत्मविचारणामे लीन हो जाते थे । निवृत्तिकी पूर्ण भावना होने पर भी पुर्वोदय कुछ ऐसा विचित्र था जिससे उनको बाह्य उपाधिमे रहना पडा । श्रीमदु जी जवाहरातके साथ साथ मोतियोक! भी व्यापार करते थे । व्यापारी समाजमें ये अत्यन्त विश्वास पात्र समझे जाते थे । उस समय एक आरब श्रपने माईके साथ रहकर बम्बईमे मोतियों की आइ़त का घंघा करता था छोटे भाई के मनमे आया कि आज मैं भी बड़े भाईके समान व्यापार करूं । परदेश से आया हुआ माल साथ मे लेकर आरव बेबने सिकन पड़ा । दलालने श्रीमदूजीका परिचय कराया । श्रीमदूजी




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