वैशाली की दन्तक पुत्री | Vaishali Ki Dantak Putri
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
115 MB
कुल पष्ठ :
308
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बताती की इतक पृत्रो छू
धपने को प्रौप् ही घेषत कर अब गहन उस हक पहुँचे तो दतके मुख्त पर गही पूर्वशतु
प्रपूस्त माव डर झाया ।
प्रााद प्रे प्रस्वान करते सम| पराधंशाहुरु का थओो प्रप्न शुप हमर भागा
था बह परम तक प्रकट में प्राब' शुप्त हो चुडा था । हाँ सुस्त पर रुफ ल्िस्तठा धवा्य
दोक्ष रही बी। कदाबित् इपी शिस्टता के बपरण बह सद्दा भेष्ठी को प्रजी तक केबल
प्रधूरी दाद ही धुा बाएं पे ६ उठदो दृष्टि बसे किसो छटिल समस्या की पहुतता मैं
इक पहूँ। बृद्ध प्रामत्त की इस उरपत प्बस्पा को देख महापेप्ठो को कछ हईँरीसी पा
बई। परासंबाहरु की संस तस्दा टूटी ! स्रेष्ट हो उाहोते महात्रेप्ठौ क्री घोर पैडा ।
हिम्तु इसी मध्य महास्रेष्टौ एमुस्कान चषदछठा से बोल उठे---“मित्रधर यहि भ्राभपाती
है काने है इतने दिस्त हो उठे हो, फिर ठो मद्दी ऋभ्ठा है कि धुस भी दभाषत की
शरण था मो ।”
बहुज्रप्टौ मे यह भाव केवल छद्ण वितोद में कही पी , तो भी बह से पसत-
प्रंडाहक के शिसी मर्स्थणष का स्पर्ष क्र सही । प्राक्मे् के ऐे कष्ठ स्वर में बह पोसे--
अयग्पषर, घापड़ो विदित हो इंबायार शो ध्ोर भाते-जाते मैं बहाँश्रापा हैं. क्या
हृप्तीशिए कि मेरा अपह्टास् किया बाय ?*
यह कइठे हुए परसेबाहुक कुछ एनेजित हो रद । साप ही पीठिकरा से जी
भ्ष् कौ हुए। फिर मशाभ्ेप्टौ ही बच्चा झिस प्रकार बेठे रह जाते । वे दोगों ही पर
छार बास रद थै। प्रएफ (एक पूधरे के स्व॒पाद से सुपरिचिष्ठ थे। एसी से बरप
पंबाइफ को रत्तेश्चित हुप्ा एशइर भी मद्टामेप्ठी बइराबे हहाँ। बरणभ 9इघम पारपीष
भाग से हूँश बड़े । भावषश्ष सटकते घपने बदल श्मभु केशों को ड्वाद में बडुंड़ बतें स८
अजरूक पाजस्त के नेजों के सम्मुख फैगाते हुए रोले --”मित्रवर | कृक सफर धोर मी
पघ्याम रो । बैंधाली कै तध्ण यम यह धुर्नेगे कि धपोदय पससंबाहुब भाश्राती के
अमे थाते पर शिम्त सम हो हटे हैं दो मसा कया मे ६ बिना रह जाएंगे क्या पर भी
हमारी ऐसी प्रबस्था रह महँ है कि किमप्ती रूपए के पीहै तिरापा से इसमे शदास हो ४ढठे।
फिए,छाब ही पंण्पर्सबाइक धपुछ महू दुर्खभ बौरबास्पट पद उसकी मात रक्षा मौतों ।1
“तभी तो इतनी चिन्ता है मह्मा्नेप्स |” प्रझ्॑व/इक मे दक्त मैं सकी इदास
डाइए छोरते हुए दरपरता से कहा । दृष्टि बढ डी रही ।
किस्तु इपत थाई भी यणावंस्वह$ के मुश्ध को इरासी से सटझा हुपा देख महा
पेप्डी फिर इंघने हो उचत हो हठे ! पर इस बार बड़ प्रदट में गहीं बरम मत ही से
हूँ कर रह पजै । ऋपर स प्रत्वात पाजी र॒ भाव दिला बोले--* मित्र सामम्त | महा म्रेप्सी
कोई हे मह्ठी । अप बह इतना भी तहीं सबरूता हि बाएसंबाहुड़ क्री बह बिस्ता
उर्दंदा सदित हैँ! है। दईपा्ी में कमा रीडिफ्ा की भविप्टादी का पह श्रीह्वेत हो
शाप प्रौर प्ताम्रात प्रेप्ठ धजरैव का उतरी विस्ता तक मे ही भला यह कैसे सुम्मब है? ”
प्इना बड़ तजिक इड़े ह्ीर शृटिल दृष्टि पे परामंबाहुक को धोर देखा । दस
एंबाइक को सृझ् मुटा इस प्रमण रशसी कौ ट्रीमा को ह्रॉंप विसी यद श्रमस््पा की
बता में उस चुद बी । मद्रासेप्टौ रूफ शर्यों तक यो ध्याव थे रगढ़ी मुख रैसापं
डी रैएसे बे (दए शोले--“दस्पुघर ! स्मरण है गत बार जड देगी वितरापदा है
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