श्री इष्टोपदेश टीका | Shree Ishtopdesh Teeka

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Shree Ishtopdesh Teeka by शीतल प्रसाद - Sheetal Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ इछपदेश टीका । क्रिया झलक रही है इससे में पुट्टलसे भिन्न एक सत्‌ चेतन पदार्थ हूं जिसको भात्मा कहदे हैं। .' मेरे आत्मामें कर्मोका बंध हैं यह बात भी मुझे प्रगट रूपसे झलक रही है कि ज्ञान स्वभाव होता हुआ भी मैं प्वे ज्ञेयोकी जानने योग्य -तिक्रालवर्ती समस्त पदा्थोक्री समस्त पर्यायोकों नहीं जान रहा हूँ तथा नैठ्ती आत्मा मेरेमें है वेस्ती आत्मा अन्य संजीद एकेन्द्री, ढंद्वी, तेंद्री, चोद्री, पंचेंद्री, गाय, घोडा, द्वाथी, स्त्री, पुरुष आदिकों में है क्योंकि वहां भी मानपना झलक रहा है परन्तु सद जात्माओंफ्रा ज्ञान एकप्ता नहीं है । कोई मुझसे बहुत ही कम यहां तक कि अ्रतज्ञानके भेदमिं जितने सविभाग परिच्छेद जक्षर नामा ज्ञान खंडके हैं उनसे भी अनंत्वे भाग ज्ञान मात्रको ही प्रकट कर रहा दे कोई उससे कुछ जधिक अधिक कोई मुझसे भी जधिक जान रहा है | नेसे एक पट शास्त्रका मर्मी होकर जेन मागमकी तुलना करनेवाला इस तरह आात्मामें शानकी द्वीवता अधिकरदा प्रगट हो रही है जिप्तका कोई कारण जबश्य चाहिये-ओर दृह कारण ज्ञानावारण दशनावरण कर्मकी रमका सम्बन्ध है। नर निर्मेल दपण रजसे जाच्छादित हो ज्ञावें तो घने ढके हुए कम प्रकाशकी करते कम ढके हुए अधिक प्रकाशकों देते इस छिये जिप्त जात्मामें अधिक आवरण व धोह़ाप्ता क्षयोपशम वह कर जानता, भिप्तमं कम मावरण व अधिक क्षयोपश्षम वह अधिक जानता है | एक तो इस वातसे कमेका वेंष सिछ है। मे यदि जोर भी गंभीरतासे विचार करता हूं दो माद्म पड़ता है कि जो कोघ, मान- माया लोभ, कपायक्षी कड॒पता प्रत्यक्ष झा:




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