कच्चायन व्याकरण | Kaccayana Vyakarana

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Kaccayana Vyakarana  by लक्ष्मीनारायण तिवारी - Laxminarayan Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इस महत्त्वपूर्ण कार्य से मुक्त होकर मैंने पुनः इस कार्य को प्रारम्भ किया तथा इसमें देवनागरी पालि-न्रिपिटक प्रकाशन योजना के हमारे सहयोगी तथा श्रधुना नव नालन्दा महाविहार के रजिस्ट्रार श्री बीरबल शर्मा ने हाथ बंटाया श्रौर हम दोनों के सम्मिलित सहयोग तथा परिथ्म से ही यह पुस्तक पुर्ण हो सकी हैं । सर्व- प्रथम हम लोगों का ध्यान शूलपाठ की श्रोर गया तथा इसके लिए कच्चायन- मूल-सुत्र-बुत्ति के तीन प्रामाशिक संस्करण ग्रहण किए गए । उनमें एक रोमन में फ्रच-प्रनुवाद एवं टिप्परियों के सहित जुर्नल एशियाटिक में १८७१ में प्रकाशित तथा प्रसिद्ध फ्रेंच विद्वान सेनाट द्वारा सम्पादित संस्करण था तथा सिहलो लिपि में प्रकाशित कच्चायन के ये दो संस्करण थे--(१) श्री धर्मकीति धर्माराम प्रिसिपल विद्यालंकार कालेज द्वारा ११०४ में सम्पादित एवं प्रकाशित (२) श्री एच० सुमज्ल प्रिसिपल विद्योदय कालेज द्वारा १९१३ में सम्पादित एवं प्रकाशित । इन तीन संस्करणो के श्राघार पर कच्चायन-व्याकरण के मूल सूत्रों एवं बृत्ति का पाठ हम लोगो ने निश्चित करने का प्रयत्न किया भ्रौर उसके पश्चात्‌ ध्रनुवाद कार्य में प्रवृत्त हो गए । श्री शर्मा जी नियमित रूप से नित्य प्रति हमारे यहा चले श्राते थे श्रौर श्रनुवाद के कार्य में निरन्तर हम दोनों प्रगति के पथ पर श्रग्रसर होते गए । स्दे- प्रथम २७२ सूत्रों का श्रनुवाद सम्पन्न हुप्रा श्रौर सम्बन्धित ग्रत्यो से टिप्पणी श्रादि देकर यह भाग प्रेस में मुद्रा दे दिया गया श्रौर इसका तत्काल ही मुद्रण कार्य भी प्रारम्भ हो गया। पर जब इसके केवल ८० पृष्ठ ही छप पाये थे श्री शर्मा जी नव नालन्दा महाविह्वार के रजिस्ट्रार के झपने नवीन पद का कार्य भार सम्भालने के लिए नालन्दा चले गए । भरत २७३ सूत्र से लेकर श्रन्त तक के श्रनुवाद व्याख्या एवं टिप्पणी श्रादि को सम्पुर्ण कार्य मुझे स्वयं करना पड़ा श्ौर उधर पुस्तक भी छप रही थी । उसे भी मुभे ही देखना पड़ता था । समय समय पर व्यवघान भी उपस्थित होते रहे पर यथासम्भव मैं इस कार्य को करता रहा । नित्य प्रति भ्रनुवाद करके देता जाता था श्र पुस्तक के मुद्रश-कार्य में प्रगति होती जाती थी । इसके पश्चात्‌ विश्व के सुप्रसिद्ध भाषाकिद कलकत्ता विश्वविद्यालय के एमेरि- टस प्रोफेसर श्रनेक सम्मान्य संस्थाप्ों के समादत सदस्य एवं पश्चिम बद्ध विधान- परिषद्‌ के श्रध्यक्ष परमश्नादरणीय डा ०सुनीतिकुमार चादुर्ज्या एम०ए० डी०लिट् से हमने इसकी प्रस्तावना लिखने की प्रार्थना की । वे उस समय श्रत्यन्त व्यस्त थे सन में वर




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