संस्कृत वाड़मय भाग - 1 | Sanskrit Vadmay Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
261
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)-- प्रासंगिक वक्तव्य +--
अमरमभारती के ध्ागण में संस्कृत-बाइमय का कल्पपादप
स्ववीय घौरसातिध्यय से समस्त विश्वकों जो जीवन सुधा अदान करता है, उसमें
विकधित शझु« पु० संस्कृत वादमय एके विश्विड श्रामोदपूर्ण पुष्प-स्तवफ़ है
लो श्रॉज लगमग ७०० वर्षों से परम फल का उद्भावक माना जाने
क्षया है 1
भारतीय संस्कृति के संरक्षक जगदूगुद भ्रीवल्लभाचार्य का प्रादुर्मोव और
अवस्थिति ( सं. १५३५-८७ ) ठस विषम परिस्थिति में हुई थी-जब देछा में
परकीय राज्यक्रान्ति का बोलबाल्य याथ्त मारतीय राष्ट्र का लोकजीबन
सवंत: पीडित, आसमय, अस्त-ज्यस्व था, घर्मेझा शुद्ध स्वरूप तिरोहित-्सा
दो गया या, संस्कृति अनुदिन प्लीयमाण होकर मुसूपु दोरदी थी। वैदिकघर्म
ने पाखण्ड का रूप घारण फरलिया था और देश के शान्तिसुख-दायक पत्रित्न
सीय॑ंस्यल, देवालय, धर्मपीठ स्वतः नष्ट श्रण् होगए ये । जनता का शासक
राजन्यवर्गं पारस्परिक कलइ, बेमनस्य, कूठ एप स्वार्यलोलुप्ता से स्तीणशकि
ड्लोकर पस्वक्र के द्वारा विनट्ध किया जारदायप तो सन्मार्ग-अ्रदर्शक सुघी-समाज
डदरंभरी द्वोऋर अइंकाररदिमूढ केवल वादविवाद पंऊ में आ्राकण्ठ डूब चुक्ता या।
मारतोय धर्म, संस्कृति, माया, वेश, आचार, विचार, समाज और जनता किस
प्रलय में निशीर्ण हे जाययी १ कहा नदी जायकता था । घाख्रों का उच्छेद हे
रहा था, ग्रन्थों के सप्नहालय मस्मसात् किये जारदे ये | कइने का चातलयें यह
कि-मारत “भारत” रहेगा या नहीं ह यद एक समस्या उठ खड़ी थी ॥ विद्ेषकर
विन्ध्यका उचरीय मांग तौ जिस विनाश चक्र में फस गया था उठसे उवारनेका
खामथ्यं केवल परमात्मा के दवाथ की बात हो यई थी ।
पुत्न ठिकंदर लोदी, बाबर और हुमाऊं का राज्यकाल 1
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