आग का दरिया | Aag Ka Daria
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
45.03 MB
कुल पष्ठ :
508
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)16 आग का दरिया चम्पक उससे शादी न कर लेती । ब्राह्मण बेचारे करें भी क्या ? पढ़ें नहीं तो कहाँ जाएँ । पढ़ना तो उनके भाग्य में लिखा है सरोजनी ने मुँह लटका कर कहा। नदी के बीच में पहुँचा तो बारिश की दूसरी बूँद गौतम के सिर पर आन पड़ी । वरसात की वजह से सरयू का पाट अत्यंत चौड़ा हो गया था । सोन नदी के पाट से भी ज्यादा चौड़ा जिसे पाटलिपुत्र जाते हुए गौतम ने एक मर्तवा तैर कर पार किया था। उसने तैरते-तैरते पलट कर एक बार पीछे देखा । घाट पर लड़कियाँ अब तक बैठी थीं और वह भी मौजूद थी जिसके बालों में चम्पा का फूल था। उन लोगों को बारिश में भीगने का भी डर नहीं-गौतम ने सोचा और जल्दी-जल्दी लहरों का मुकाबला करने में लीन हो गया । सामने दूसरे किनारे पर दरियाई घास और नीले फूलों की घनी बेलें पानी की सतह पर झुक आई थीं। बरगद के साए कासे हो चले थे। सारस और मोर सिमटे-सिमटाए उदास खड़े थे। चार-पाँच आदमी अंगोछे कंधे पर डालते जल्दी-जल्दी गाँव की ओर कदम बढ़ा रहे थे। किनारे पर पहुँच कर गौतम ने अपने कपड़े निचोड़े और अनगढ़ पत्थरों से वने हुए मंदिर में गया जिसके एक कोने में वह अपना पाधेय चंडी देवी को सौंपकर अयोध्या गया था। एक छोटी-सी पोटली में उसकी कूजियाँ थीं और सफेद रेशम के चंद टुकड़े। उसका क्रम्बल था। एक सफेद रंग की धोती और चमड़े के चप्पल । उसने वेपरवाही से पोटली उठाई पैर साफ करके चप्पल पहने और मंटिर से बाहर निकल आया । की चारों ओर बड़ा सन्नाटा था और मन्दिर के आँगन में उसे एकदम बड़ा डरावना लगता । कैंसी खौफनाक वात है। निराकार ब्रह्म जब कोई रूप धारण करके प्रकट होता है तो उससे घबराहट क्यों होती है क्या मनुष्य को दूसरे के अस्तित्व में विश्वास नहीं ? गौतम नीलाम्बर ने भय की भावना का प्रायः विश्लेषण करना चाहा था। जीवन का भय मृत्यु का भय जीवित रहने का भय ऋग्वेद में लिखा है कि आरम्भ में अहं था जो पुरुष के रूप में प्रकट हुआ । उसने चारों ओर दखा और अपने सिवाय उसे कोई नज़॒र न आया उसने कहा ये मैं हूँ। इसलिए वह खुद को में समझने लगा । उसे डर लगता था चूँकि वह अकेला था । इसलिए जो अकेला होता है उसे डर लगता है। फिर उसने सोचा मेरे सिवाय कोई मौजूद नहीं है तो मुझे काहे का डर है। अतः उसने डरना छोड़ दिया । परन्तु उसे आनंद प्राप्त नहीं था क्योंकि अकेलेपन में उदासी होती है । और उदासी से डर लगता है। मुझे अपनी आत्मा के अकेलेपन से डरना नहीं चाहिए ।--गोतम ने अपने से कहा । मंदिर वहुत पुराना था । आस-पास गौतम को कोई पुरोहित या पुजारी भी नजर न आया जिससे वह पृछता की श्रावस्ती जाने के लिए कौन-सा रास्ता इख्तियार करे । यहाँ से खेत ख़त्म होते थे। आगे शीशम के घने जंगल थे और ढाक के झुण्ड और अनगिनत नटी-नाले । इन सबको पार करके उसे अपने आश्रम पहुँचना था । मन्दिर की साठ़ियाँ उतर वह गाँव की ओर वढ़ा । सरयू के पार अयोध्या की रोशनियाँ जुगनुओं जैसी झिलमिला रही थीं । बारिश की धुंध में सारा दृश्य नीला और उपा-सा दिखाई दे रहा था जिसमें नारंगी रंग की धारियाँ जैसी फैल गई थीं । गीतम ने आवादी में पहुँच कर दो-तीन दरवाज़ों को खटखटाया। रात के खाने के लिए उसे केवल दाल की ज़रूरत थी। एक लिपे-पते कच्चे मकान के द्वार
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