सूर्यारोहण | Suryarohan

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Suryarohan by महेंद्र प्रसाद सिंह - Mahendra Prasad Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रतीक्षिता जो कुछ जहाँ है वही थम गया है -- खिडकी के मुक्त कपाठ के पलले से जकडा कपोत, खुले दरवाजे पर तिरछी पडती क्वार की धृप का शहतीर, पन्‍नो पर जबरन गडी ओर पल-पल उठती आँखें तथा धडी की पथरायी बाँहें आसमान भी आज किचित्‌ धूमिल है, मेधदूतो की तेरती पाँतें भी आज सात्वना देने नही आयी ऐसे मे सिहरते प्राण भी कब तक साथ देते ! शाम होते-होते मैं भी पथरा गया फिर कुछ भी दिल न बहला सका-- न बीते दिनो की छायाओो से आकस्मिक मुलाकात, न भविष्यत्‌ की सुनहली राँकी, ने चलचित्र पट पर भीड का पूर्वाग्रही अपतत्रक उन्माद, न प्रतीक्षिता की दिवास्वप्निल भ्रामक भलक मेरी चेतना तो कच्छप-सा सिमट कर आज ओर अभी पर केंद्रित हो आयी है अनागमन तिकोने भात्ते सा गंड कर मुझे साल रहा है सूर्यारोहण | 27




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