याज्ञवल्क्य स्मृति | Yagyavalkya Smriti

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Yagyavalkya Smriti by गुरुप्रसाद जी शास्त्री - Guruprasad Ji Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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: विवाहप्रकरंण 1 श्र दें तो उसके हरएक ऋतुकाल में इन्हें श्रृण-( गर्भ ) हत्या का पाप लगता है | यदि कन्यादान का अधिकारी कोई न हो तो “शीग्य बर को कन्या ख़द वरण करे ॥ ६४॥। सकुत्मदीयते कन्या हरंस्तां चोरदरडभाक्‌ । - दत्ता मपि हरेत्पूवा ज्यायांश्वेद्वर आात्रजेत्‌ ॥ ६५ ॥ झनाख्याय दद॒द्ोषं दुर॒ड उत्तमसाहसम्‌ । अआदुष्टान्तु त्यजन्द्रज्या दृषयरतु गृषा शतस्‌ ॥९९॥ कन्या एकट्दी वार दीजाती है जो उसका हरण करे तो चोर के समान दण्ड का भागी होता है। ओर यदि पहले वर से 'अच्छा वर आ मिले तो दी छुईं कन्या का भी -हरण कर लेवे ॥ ६५॥ कन्या का दोप बिना कहें ही जो कनन्‍्यादान कर देते हें उनकों उत्तम साहस का दण्ड देना चाहिये । ओर निर्दोष कन्या को त्थाग करनेवाले पति को भी यही दुएड देना चाहिये । यदि कोई भंठा दोप लगावे तो उसे सौ पण्य दण्ड देना चाहिये ॥६६॥ हे 5 * आक्षता च क्षता चैव पुनभ्ृः संस्क्ृता पुनः । ९ दीप &€ ४७ ७४. (9 २ न सस्‍्वारणा या पाते हित्वा सनण का मतः श्रयत्‌ ॥९७॥ अपना गुरवेननज्ञातो देवरः पुञ्रकाम्यया । सरपिण्डो वा सभोजत्रो वा घृता5भ्यक्तऋता वियात्‌ ६ ८॥ कन्पा चाहे अक्ञता चाहे क्षता हो दूसरी वार जिवाह होने से चह पुनभ कहलाती है । और जो पति को. छोड़ किसी अपने दूसरे सबरणणे पुरुष को स्व्रीकार अपनी इच्छा से कर ले वह स्वोरेणी... जा _हैं॥ ६७ | जिसके पृत्र उत्पन्न न हुआ हो उस वा भौजाई से। ऋतुकाल में सब अह्ल में घी लगांकर अपने




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