हिन्दी नाट्य दर्पण | Hindi Natya Darpan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
534
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( है८ )
इत्पंकारमकारणेकसुहद विश्वस्य पाछ्टव जिन
त॑ स्तोतुस्त्रिजगद्विलक्षणगरुराप्रामाभिरामाकृतिम 1
यः कड्चिद् विकुचीव मूव बत में भाग्यातिरेकस्ततः
तह्लोकव्यतिरिक्तमुक्तियुवतिप्रेमप्रमोदोत्सव: ॥॥
इन दोतों इलोकों में से प्रषप्त इसोक में प्न्यकार ने पादयंदेव को स्तुति वी है भौर उनके
झनुप्रह ते 'विधिनतान्ध्य' भौर 'गलत्तनुता' के नाथ की प्राशा प्रकट वी है। दूपरे इलोक में भी
उन्ही पाइवंगाथ को स्तुति करते हुए इसीप्रगार भपने “भाग्यातिरेक' के 'विकचीभवन!वी
चर्चा की हैं । यों प्रत्यता जीवन का भ्रभिशाप है। किन्तु उसमें बाह्य वृत्तियों का निरोध होबर
भनुष्य की वृत्तिपाँ स्वयं प्रस्तप्|खे बद जाती है गौर उसके भीवर भगवान् के प्रति प्रेम का
उदय हो जाता है यह भच्छी वात है । इस दूसरे इ्लोक में रामचम्द्र ने भपने उसी “माग्यातिरेका
के 'विकचीमवर्न' को 'प्रमोदोत्सव” कहू कर भपना सन्तोष व्यक्त दिया है ।
ग्ृग्यकार फे जीवन फी पस्तिम रांको--
अ्राचायय हेमचन्द्र के जीवन की भनग्तिम भांकी हम देख छुके हैं। जिस सप्तय 'प्रशहिल-
पहुन! के राजा कुमारपाल भपने उत्तराधिकारी के निरुंय के सम्बन्ध में पर/मर्ण फरमे के लिए
भाचाय॑ हेमचन्द के भ्रावास-स्पान पर परामर्श कर रहे पे, उस समय भाघषाय के प्रन्यान्य शिध्यों के
साथ रामचन्द्र भी उपस्थित थे । उस समय प्जयपास को राज्य का उत्तराधिकारी ते बनाने का
जो परामर्श पराचाय॑ हेमघन्द्र की भोर से दिया गया था उसमें रामचर्द्र का विशेष हाथ था।
झाचाय॑ हेमघत्द् के शिप्पो में रामचन्द्र का प्रतिद्वन्द्दी भोर मन ही मत उनसे द्वेप रखने वाला
उसका सहपाठी बालचन्द्र भी था। उसने ही भ्रजयपाल के प्रास जाकर रामचर्द्र की चुग्रली
करके प्रजयपाल को रामचनर्द्र का शत्रु बना दिया था। इसलिए जैसा कि हम पहिले पढ़ छुके हैं भव
झजयपाल राजा बना तो उसने रामघरद्ग को बुला ऋर गर्म लोहे को चादर के ऊपर बिठा कर उनको
मरवा डाला । रामुचरद की दस नुशस हत्या के पूर्वे घजयपाल ने कहा था कि--
महिवीठह सचराचरह जिश सिरि दिप्हा पाय।
तसु प्रत्यमणु दिशेसरह होउत द्वोइ चिराय ॥/
[महीपीठस्प सचराचरस्य येन शिरसि दत्ता: पादा: ।
तस्थास्तमनं दिनेश्वरस्य भवितव्यं भवति चिराय ॥]
भर्पातु जो सारे चराचर जगतू के सिर पर पैर रखकर चलता है उस दिनेदवर सूयं का
भन्त में चिरकाल के लिए भस्त हो जाता है। इसी प्रकार झाज हमारे सिर पर पैर रखने का यत्न
करने वाले इस रामचनद्र का झन््त हो रहा है ।
रामचन्द्र के सहकारी गुसचन्द्र--
प्रस्तुत 'वाव्यदर्षण! ग्रन्थ को रचना में रामचम्द्र के साथ गरुणचन्द्र का भी नाम पाता
है। भर्यात् इस ग्रल्य की रचना रामचद्ध गुणचन्द्र दोनों ने मिल कर की है। इनमें से रामचन्द्र के
जीवन का वृत्तान्त ऊपर दिया गया है 1 किन्तु ग्रुणचन्द्र के विषय में कुछ भधिक परिचय नही
मिलता है। केवल इतना विदित होता है कि ये रामचर्द्र के सहपाठी घनिष्ट मित्र भौर प्ाचाय॑
हेमचन्द्र के शिष्य थे । इन्होंदे प्पने तीसरे स्ाथो वर्धभानगणि के साथ सोमप्रभावायं रचित
ुमाश्पाल प्रतिबोध' का श्रवण किया या । इस बात का उल्लेख करने दाले दो एलोक हम पृष्ठ ८
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