खण्ड प्रशस्ति | Khand prashsasti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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: प्रकाश्चकी ये राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाता के श्रन्तगंत इस ग्रव्य का प्रकाशन १२४वें ग्रन्थ के रूप मे किया जा रहा है । भारतीय स स्कृति मे अवतारवाद का अपना महत्वपूर्ण रथान है, श्रौर णीवन के विरल क्षणों मे मनुष्य मात्र किसी अनिवर्चनीय सत्ता के प्रति अमिमुख होकर ही भात्म- कल्याण की कामना करता है - चाहे उस नाम रूप की कल्पना किसी भी प्रकार की हो । इस काव्य में मगवान विष्णु के दश जवतारों का स्तवन मनोहारिरी ललित भाषा में किया गया है, जिसके अध्ययन से अवश्य ही विद्वज्जनो को श्राह्माद होगा । प्रस्तुत स स्करण मैं मूल रचना के साथ परशिडत कीका कृत 'पजिकावृत्ति! जीर श्रीमुशविनय कृत सुबोधिका टीका दी गईं है। प्रतिष्ठान के निवृत्त निदेशक डा० फतहसिह ने श्रपने कार्यकाल मैं इसका सम्पादन प्रारम्भ करवाया था जिसको प्रतिष्ठान के गवेषक महोपाध्याय श्री विनयसागर ने सम्पन्न किया है। सम्पांदक द्वारा भूमिका शव परिशिष्टीय माग मैं ज्ञातव्य विषयो पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है। इसके लिण श्री म० विनयसागर धन्यवाद के पात्र है । ग्रन्थ मे मुद्रित दशावतार के फलक की फोटो प्रति श्री रलचन्द्र अग्रवाल निदेशक, पुरातत्व शव स ग्रहालय, जयपुर के सौजन्य से प्राप्त हुईं है एतदर्थ प्रतिष्ठान उनका श्राभारी है । इस प्रकाशन से जवश्य ही अध्येता शव श्रनुसन्धित्सुओ का उपकार होगा, शैसा मुके विश्वास है। १४ सार्ज, १९७५ जितेन्द्रकुमार जन निदेशक




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