प्रवचनसार | Pravachansaar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्बचनसार........... . 8३ संपज्जदि णिव्वाएं देवासुरमएुयरायविहवेहि । जीवस्स चरित्तादो दंसणणाणप्पह् णादो ॥९॥ . 5 बिशुद्धदशनज्ञान. प्रधान तेपामाश्रमम । गत्वा साम्यमवाप्नोमि निर्वाणावाप्तिरित्यतः ।।१॥ . सद्दृशिज्ञानपुक्तेन. चरित्रिशेशह देहिनाः । सम्प्ते सम॑ मुक्ति सरेशनृपवेभवं)! ॥३॥ ... उनके अ्रवचनसारको यहाँ हिन्दी छन्दोंसे गाऊ। . +. अपना और भद्रलोगोंका जिसपरसे हित कर पाऊँ॥ द . सम्यंग्ज्ञानसहित चेतनका चरित सदा सुख भरता है| श्री सुरेश (देवासुर) मानवराज विभवयुत शिवपदको करता है ॥१॥ द सारांश।--सम्यकदर्शन सम्यकंशञान सहित जो सम्यकचारित्र है वह सराग और वीतरागके भेदसे दो प्रकारका होता है ॥ वीतराग चारित्रसे तो साक्षात्‌ निर्वाणकी प्राप्ति होती है किन्तु सराग चारित्रसे : देबेन्द्रपद. प्राप्त करके तद॒परान्त मनुष्यभवमें चक्रवर्ती या बलदेव वगेरह की राजविश्वृतिको प्राप्त करके फिर मुनि होकर मुक्ति प्राप्त करता है। एवं सरागचारित्र परम्परा मुक्तिका कारण माना गया है; यही यहाँ बतलाया है। मूलग्रंथकी छठी गाथाका शुद्ध पाठ 'संपज्जदि णिव्वाणं : देवेसुरमणुयरायविहवेहि' ऐसा है क्योंकि सम्यक्हृष्टि .जीव मरकर ५ असुरोंमें कभी भी उत्पन्न नहीं होता है। यह बात दूसरी है कि कोई - सम्यर्ृष्टि जीव चारित्र धारण करके भी किसी असुरकुमारकी विभूति- . को देखकर उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जानेसे लालायित होकर निदान . बंध करले तो वह मरकर धरंणीन्र जेसी अवस्था भी प्राप्त कर लेता > है । इस अपेक्षासे 'देवासुरमणुयरायविहवेहिं' ऐसा पांठ भी हो सकता है। द आगे चारित्रके स्वरूपको प्रगट कर बतलाते हैं :-- . चारितत खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति शिहिट्रो 1 मोहक्खोह विहीणों परिणामों अप्पणो हु समो ॥७॥




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