गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र | Geetarahasya Athva Karmyogshastra

Geetarahasya Athva Karmyogshastra by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना श्ु हो गया। क्योंकि मोक्ष थर नीतिघम के तत्व गहन तो है ही; साथ ही इस संतन्ध में अनेक आाचीन और सवांचीन पण्डितों ने इतना विस्तृत विवेचन किया है, कि व्यर्थ केछाव से बच कर यह निर्णय करना कई वार कठिन हो जाता है, कि इस छोटे-से अन्थ में किन किन बातों का समावेश कियः जाए ? परन्तु सत्र हमारी स्थिति कवि की इस उच्ति के मनुसार हो गईं है - यम-सेना की विमल ध्वजा अव “जरा” दृष्टि में भाही है । बिक ७ करती हुई युद्ध रोगों से देह दारती जाती हें ॥ & भौर हमारे सांसारिक साथी भी पहले दी चल बसे टं। अतएव सच इस अन्य को यह समझ कर प्रसिद्ध कर दिया है, कि हमें जो बातें मादम हो गई हैं भर जिन विचारों को हमने सोचा है, वे सच लोगों को मी ज्ञात हो जाएँ. । फिर कोई-न-कोई 'समानघर्मा* अभी या फिर उत्पन्न हो कर उन्हें पूर्ण कर ही लेना | मारंम में ही यह कह देना सावदयक है, कि यद्यपि हमें यह मत मान्य नहीं है, कि सांसारिक क्मों को गौण अयवा त्याज्य मान कर अह्मज्ञान शीर मक्ति अमुति निरे निदक्तिप्रधान मोक्षमार्ग का ही निरूपण गीता में है; तथापि हम यह नहीं कहते, कि मोशप्रासिमार्ग का विवेचन मगवद्गीत। में बिलकुल है ही नहीं । हमने मी ग्रन्य में स्पष्ट दिखला दिया है, कि गीताशास्र के भनुसार इस जयत्‌ में प्रत्येक मनुष्य का पहला कर्तब्य यही है, कि वह परमेश्वर के झुद्ध स्वरूप का शान प्राप्त करके उसके द्वारा अपनी बुद्ध को, जितनी हो छके उतनी, निर्मल और पवित्र कर ले ! परन्तु यह कुछ गीता का मुख्य विषय नहीं है। युद्ध के सारंम में अर्जुन इस कर्तन्यमोह्द में फेंसा था, कि युद्ध करना क्षत्रिय का घर्म मले ही हो; परन्दु कुलक्षय आदि घोर पातक होने से जो युद्ध मोध्ष- माहिरूप भत्मकल्याण का नाश कर डाछेगा, उस युद्ध को करना 'वाहिये भयवा नहीं मतएव हमारा यह भभिपाय है, कि उठ मोह को दूर करने के लिए. शुद्ध वेदान्त के साधार पर कर्म-अकर्म का हर साय ही साथ मोक्ष के उपायों का मी पूर्ण विवेचन कर इस घकार निश्चय किया गया है, कि एक तो कमें कमी छूटते ही नहीं है, और दूसरे उनको छोड़ना मी नहीं 'वाहिये। एवं गीता में उठ युक्ति का - ज्ञानमुलक भक्तिप्रधान कर्मयोग का - ही प्रतिपादन किया गया हैं कि जिससे कर्म करने पर भी कोई पाप नहीं रूगता; तथा भन्त में उसी से मोक्ष मी मिल जाता है | कमे-अकर्म के या घर्म-अधर्म के इस विवेचन दो ही व्तमानकालीन निरे भाधिमीतिक पण्डित नीतिदास्र कहते हैं । सामान्य पद्धति के अनुसार यीता के *छोकों के क्रम से टीका लिख कर मी यह दिख लाया जा सकता था, कि यह विवेचन गीता में किस प्रकार किया गया है? परन्तु वैदान्त; मीमांसा, सांख्य कर्मविपाक अथवा मक्ति प्रशति शास्त्रों के निन केक वादों कक कक यार काला कितना * महारान्ट्-कविवर्य मोरोपन्त का 'किका” का भाव 1 गी.र. २ण




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