कालिदासकोश | Kalidasakosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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0 अग्रयायी 'पु० 63 4 18 58 । अग्र ऊ+या-+-गिनि, विशेषण, जग्रेयातू जीयम> ति। पु०, पथमा एक ०, पुशंगत (मत्लि०), अगुवा। अग्रे याति इति। अग्न ७» /या+णिति। साुराम ने अग्रयायी को नृत्यशारत्र की परिभाषा माना हे । उ होते ने इस विपथ् में कोई प्रमाण दिये है न उन पदों की परिभापषएं की है। तद्याडामतवानपा, ५, तथो पुरतच्तन ग्रव्छा नत्यव । अत च बाह्यो4ानस्वितहर--इत्युक्तमनुस हित वेदितव्यम । (विश्व ल्‍्लता) कालिदास की कृृतियों में प्रस्तुत पद का प्रयोग चार बार हुजा है। मबदूत के अतिरिक्त रघुवश में दो (5 62,18 10,) तथा शाकुन्तल' में एक (7 26) बार इसका प्रयोग हुआ हे । 7 अडकितम्‌ (पु२ 12 2 10 21) अकि-+क्‍्त +अम्‌, कृद त (भावे क्‍त', नपु०, ्वितीया एक०, घिह्लितम्‌ (चॉरित० मत्लि०), ऊतसचार्म' (प्रदीप), चिह्ितम्‌ मंघदूत के 1तिरिक्त इस पद का प्रयोग कालिदास ने विक्रमोवशीय में एक बार (4 7) फ््यिठे। 8 अद्भग्लानिम्‌ (3० 92426 ) अज्भ आम +ग्लानि--अम्‌, पष्ठी तत्पुम्प, स्ती० द्वितीया० एक०, शरीरखेदम्‌ | अवयवाना ग्लानतामिति यावत (मल्लि०) गातस्रेदम 'सुबोता),, जगानाम सलानि , तम्‌ । ग्लानि--- &/ग्ल+ति। थकान, शिविलता, खि नता, भारोपन, दुबनता, मे दता । 9 अद्भनानाम (द्विवार प्रयुत्तम पु० 9 14 49, अटगना--आम, सज्ञा, स्त्री०, पप्ठी०, यहु९, उ० 26 4 259 विरहिणीनाम्‌ (वल्लभ०), प्नीणामू (भरत०) विरहिणीन म॑ (पचिवा 26), मदुप्रकृतीना स्त्रीविशेषाणाम (विद्य्‌ त्लता०), स्त्रीणाम (सुबोवा) अद्भूना प्रशस्त जगा वाली गुणवती स्‍त्री को कहते है । इस पद के प्रयोग से कवि विरहिणियां की कोमलत। को हृदयगम करा रह है । (देखा पू० मे० 9,260) कालिदास की कृतियों मे प्रस्तुत पद का प्रयोग ज।ठ बार हुआ है । मेघदूत के अर्ति। उत्त ऋतुस हार मे चार बार तथा रघुवश में दो बार इसका प्रयाग हुआ है। विस्तृत विवरण के लिय् द्रष्टव्य प्रस्तुत सम्पादक की कृति “का।लदास पदकोश 1 10 अद्भूम (तरिवार प्रयुक्‍तम, उ० ६1 122 ) अडग |-अम, संज्ञा, तपु० द्वितीया० एक ०, त्वतद्ह्म (वत्लभ०), त्वदीय' शरीरम' (सत्लि०) तव शरीरम (भरत०), उ० 43 1 2 2 अठग-+-जम, पू+वत, शरीरम (मल्लि०) शरीरम (मरत०) उ० 464 1845 अड +सु, सज्ञा, तपु० पतमा० एक०, शरीरम (वल्लभ०), अवयव (भरत०) । शरीरम (सजी 43), ल्वद्द॑ हम (पचिक। 41 ), शरम (पचिका 46), शरीर सुबोता उ 41) शरीरम तदवेदमद्भट्टीक सम्प तमिति मोहा मय, किवा अद्भ शब्दोध्य तातर याद्व्गे बतते (सुबोबा उ० 43) | तुम्हारे (यलपत्ती के) श हर को फ्लो से गये हुए केशो की तुलना मार के पेंचा से बहुआ दी जाती है। “ससे उत्रकी समृद्धि ओर कुठिलता प्रकट की जाती है। तुलरीय--पिक्नमा 4 10, रघु 9 67, नपत्र चरित 7 22, (43,) 'अद्भम” का अथ भुजाये भी हो सकता है, देखिये मालवि 11 6 कृत्वा श्यामाविटपसलण तस्तमुक्त द्वितीवः (हस्त)' और देखिये ऋतु० 170--.'श्यामालता [सुमभारनतप्रवाला स्त्रीणा हर्रा त धतत्रपणब।हुका तम्‌ । भरतसेन ने “अद्भू का वण' अथ लेकर इसका आशम यो स्पष्ण किया है कि श्यामलताओं में अथवा श्यामाओं में यक्ष अपनी प्रियतमा की श्यामलता देखता है। पृणसरस्वता ने सभी बाते देखी है-- अनेत दशकालदशाविशेषवशात तासा वविध्येत प्रयस्‍्नतोश वष्य कस्याव््चिद वणका तम्‌, अच्यस्या कोमलत्वम्‌, अपरस्या तनुखमित्यादि द्योत्यति । कालिदास की क्ृतियों मे प्रस्तुत पद का प्रयोग आठ बार हुआ है। मेघदुत के अतिरिक्त रघुवश में दो बार (3 68, 857,) विक्र्मोंशीय में दो बार (3 11, 3 16,) तथा कुमारसम्भव में एक बार (5 29) इसका प्रयोग मिलता है । 11 अज्भानुकूल (०३2 3 12 45 )अज़् +-भ्यस्‌ +- भनुक्ल +-सु, चतुर्थी तत्पुरुष, विधेषण, पु० प्रथमा




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