कल्याण मंदिर स्तोत्र | Kalyan Mandir Stotra

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Kalyan Mandir Stotra  by बुद्धिलाल श्रावक - Buddhilal Shravak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[२] ( भीताधयप्रदय ) संसारके दुखोंसे डरनेवारलोंको अमय पद देनेवाले, ( अनिन्दितम्‌ ) उत्कृष्ट और ( सैसारसागरमिमजद्‌- शेपजन्तुपोतायसानस्‌ ) भवसमुद्यें गोते खाते हुए सब जीवों- के लिये जहाजके समान आचरण फरनेवाले अथीत्‌ भवसमुद्रमें बूबते हुए जीवॉका उद्धार करनेवाके ( जिनेश्वरथ ) बिनेन्द्र भगवानके ( अब्डिपक्मस्‌ ) चरणकमलोंको ( अभिनम्य ) नम- स्कार करके; ( गरिमाम्वुराशेः ) गम्भीरताके समुद्र, ( यस्र ) जिसकी (स्तोन्न विधातुझ ) स्तुति करनेके लिये ( खय॑ सुविस्त॒त- पति ) खय॑ सुविशाल्बुद्धि ( सुरगुरु। ) इृहस्पति भी ( विश्व! ) समर्थ ( न ) नहीं हैं, तथा ( क्मठसयधूसकेतो! ) कमठका जमिमान मस करनेवाले ( तस्य तीथेंश्वरस ) उस पाश्चनाथल्ला- मीकी ( किल ) आश्चर्य है कि ( एपश अहम ) में ( संस्तवने करिष्ये ) स्तुति करता हूं | २॥ छन्दु तादक्क ( तीसमाज्ना अस्तमेंगुरु ) संगल मदर अतिशय सुंदर, अति उदार अधघायक हैं। भव सयतें भयभीत भविककों, परम अमयपद दायक हैं ॥ तारनहार पोल सम जो जग,-जरूघिमप्न भविवृन्दनकों । बन्दन करिके श्रीजिनेन्द्रके, ऐसे पद अरविन्दनकों ॥ १॥ कमठ कूरके सदमन्दिरको, पावक सम दाहनहारे । गरिसासागर गुरु गुनआगर, आदि अनेक विरदवारे ॥ ग़ाद सकें नहिं गुनगन जिनके, सुरशुरु जैसे महामती। ऐसे तीरथपति रिपिपतिके, शुन यावत हों मन्दमती ॥श। १ जहाज ।




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