भास की भाषा सम्बन्धी तथा नाटकीय विशेषताएँ | Bhas Ki Bhasha Sambhandhi Tatha Natakiy Visheshataen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वियय-प्रवेश श्३ ही धात्री के द्वारा शयनागार मे प्रवेश का सकेत करा दिया है। वात्स्यायत से भार की प्राचीनता में और भी सहयोग प्राप्त होने का प्रमाण यह हैं कि कामसूत्र में अहिल्या दकुन्तला तथा अविमारक की कथाओं का सकेत मिलता है तथा वात्स्यायन के समय इन्ही. कथाओ की लोकद्रियता का आभास भी प्राप्त होता है। पश्चात्‌ मे अह्वधोष ने अहिल्या को बुद्धचरित ४॥७२ तथा शकुन्तला को वुद्धचरित ४२० में तथा कालिदास ने भी इन दोनो का वर्णन किया है। अविमारक की कथा बाद के साहित्य में लुप्त-सरे हो गई है । यदि कतिपय विद्वान्‌ अहिल्या तथा शकुन्तला के कथानक को महाभारत से गृहीत भी मानें, तथापि अविमारक की कथा में भास की मौलिक उद्धावना है । वात्स्यायन के काल के सम्बन्ध में निम्ताकित तथ्य सहायक होगे । वात्स्यायन के कामसूत्र मे चोल राजा का कील के द्वारा चित्रसेना गणिका के बध का वर्णन प्राप्त होता है । कुतल शातकर्ण शातवाहन ने कतेरी से मलयवती को मारा । कुपाणि: नरदेव ने चित्रलेखा को काणा कर दिया। उपर्युक्त तीनों सन्दर्भ पाण्ड्य राजा के समय के प्रमाणित हो जाते हैं । चोल राजा का समय स्मिथ द्वारा लिखित इतिहास पृष्ठ ४८५२ पर ए० डी० ५०-१२० निर्दिप्ट किया है। १२० ए० डी० के पश्चात्‌ १८० ए० डी० में ६० वर्ष के बाद इस वंश का राजा हुआ। स्मिथ इतिहास पृष्ठ २२१ के अनुसार कुन्तल १२८ ए० डी० में गद्दी पर बैठा । अतः वात्स्यायन कील, कर्तरी तथा कुपाणि नरदेव से परिचित थे। और इनका समय १४० ए० डी० से २०० ए० डी० तक अवश्य निश्चित किया जा सकता है । कालिदास भी इसी समय में रहे होगे, क्योंकि वात्स्यायन' की प्रतिच्छाया शाकुं- तलम्‌ मे प्राप्त होती है । अतः वात्स्यायन १४०-२०० ए० डी० तथा कालिदास भी इसी समय के अनुमानित होने से भी भास इनसे पूर्व के ही होते हैं । ३. भास तथा मनु धर्मझास्त्र सम्बन्धी ग्रंथों में आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बोधायन, आश्वलायन, विष्णस्मृति, गौतम, वशिष्ठ धर्मसूत्र आदि में प्राचीनतम ग्रंथ मनुस्मृतिनहै। इनकी शैली १, रतियोगे हिं कीलया गणिका चित्रसेनां चोलराजों जधान |--काम०अधि० २, अध्याय ७, सूच्र८ २. कतेर्या कंतलः शानकणि: शातवाइनः महादेवी मलयवती |--काम०अवि० २, अध्याय ७, सूत्र २६ ३. नरदेवः कुपारिः विद्या दुष्प्रयुकया न्ीं चित्रलेखां कार्णां चकार | “काम० अधि० २ अध्याय ७ सूत्र ३०. ४. कालि०--शुश्रपस्व गुरुन्‌ कुछ प्रियसखीर्वात्ति सपत्नीजने | भतु वप्रक्नतापि रोषणतया मा सम गअ्तीर्प गम: ॥--शाकु० चतुर्थ अंक ४५० काम--आ्श्नपरिविया, तत्पारत॑त्यम॒ अनुत्तरवादिता | भोगेष्वनुत्सेक परिजने दाक्षिण्यम्‌ | “काम० अधि० ४ सूत्र ३७-३१




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