प्राकृत - सूक्ति - कोश | Prakrit - Sukti - Kosh

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Prakrit - Sukti - Kosh by चन्द्रप्रभसागर - Chandraprabhasagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एमेव रुवस्मि गओ पओसं, उदेदइ डुक्खोपरंपराओ | जो रूपों के प्रति हू घ रखता है, वह भविष्य में दुःख-परम्परा का भागी होता है । -5त्तराष्ययन ( ३२/३२३ ) | शा अंधद्यस जा जा बच्चई रयणी, न सा पडिनियत्तई। अहम्स॑ कुणमाणस्स, अफला जन्ति शराइओ ॥ जो-जो रात बीत रही है, बह लौटकर नहीं आती । अधम करनेवालों की राजियाँ निष्फल चली जाती हैं । -“0त्तराध्ययन ( १४/२४ ) छणवंचणेण चरिसो, मालइ दिचसो कुभोयणे भत्ते । कुकक्षत्तेण य जम्मो, नासइ ध्रम्मो अहम्मेण ॥ उत्सव न करने से वर्ष नष्ट हो जाता है और कुभीजन से दिन तथा दुष्ट सन्नी से जन्म नष्ट हो जाता है और थधम से धम । “-वजालग्ग ( ८/६ ) वालस्स पलस बालत्त, अहम्म॑ पडियज्ञनिया। सख्िद्चधा धम्म॑ अहस्मिईइ, नशण उचचल्नई || जो मूर्ख मनुष्य अधर्म को ग्रहण कर, धरम को छोड़, अधर्मिष्ठ बनता है, वह नरक में उत्पन्न होता है । “55त्तराध्ययन ( ७/२८ ) जे संखया तुच्छ परप्पचाई, ते पिजछ दोखाणुगया परख्या। एण अहस्मे त्नि दुगुंछमाणे॥ जो व्यक्ति संस्कारहीन हैं, तृर्छ हैं, परप्रवादी हैं, राग और हइ्वेष में फेसे हुए हैं, वासनाओं के दास हैं, वे घमरहित हैं, अधर्मी हैं। उनसे हमेशा दूर रहना चाहिये । “जत्तराध्ययन ( ४/१३ ) [ ६




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