पुहइचंदचरियं | Puhaichandachariyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
324
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about मुनि श्री रमणिक विजय - Muni Shri Ramanik Vijay
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१९,
खुहत्तपागच्छीय झमा० श्रौ देवेन्द्रसूरि आ० श्री जगच्चन्द्रसूरि भा० श्री क्षेमकौर्तिसूरि जैसे सुप्रसिद्ध झाचाये हो गये हैं ।
यद्यपि राजगष्छपद्मवली में सम्मतिप्रकरणटीकाकार श्री अमयदेवसूरि के पह्घर शिष्य श्री धनेश्वरसूरिं को चेत्रगन्छीय
भी बतायो है किन्तु प्रमाचन्द्रसूरिकृत “ प्रभावकचरित्र ! की ग्रशस्ति में एवं श्री माणिक्यचन्द्रसूरिकृत पा्वनाथचरित्र कौ
प्रडास्ति में इस वात का समर्थन नहों मिलता । राजगष्छपद्टावछी का रचनासमय विक्रम कौ १५ वीं सदी के पूर्वका नहीँ
है अत' उपरोक्त बात की प्रामाणिकता के लिए. अन्य आघारमूृत प्रमाणों की अपेक्षा रखना चाहिए या नहीं यह एक
विचारणीय प्रश्न है । वि. स. १५२२ के एक घातुप्रतिमाकेख में तो श्री धनेश्वर्सूरे (अमयदेवसूरिशिष्य) फो चेत्रगष्छीय
मानने के साथ साथ उन्हें ' शत्ुश्यमाहात्य ? का कर्ता भी बताया है। किन्तु यह वात सन्देहास्पद छगती है । यहाँ बह
कथन भी उपयोगौ होगा कि ' श्चुक्ञयमाहात्म्य! में कुमारपाछ झादि का वृत्तान्त तो जाता ही है। तदुपरानत उसमें उसके
क॒र्ताने अपना गष्छ राजगब्छ बताया हुआ होने से, एवं प्रस्तुत धनेअरसूरि ( श्री अमयदेवसूरिशिष्य ) की नज़दीक की
पूर्वापर श्रमणपरम्परा में कहीं भी राजगष्छ का उन्छेख नहीं मिलने से शज्रुअ्॒यमाहात्म्य के कर्ता विक्रम की तेरहवीं सदी के
अन्त में या उससे भी बाद के समय में हुए हों ऐसा अनुमान किया जा सकता है|
श्री घनेश्वसस्रि (अमयदेचसूरिशिष्य ) के बाद उनकी परम्परा में हुए प्रन्थकारों ने अपने प्र्ववर्ती कवियों कौ रचनाशों
के उल्लेख में धनेश्नरसूरि को फहीं भी शत्रुश्नयमाहात्म्य का कर्ता नहीं बताया है | भत' उपरोक्त धातुग्रतिमा के छेख को
श्रद्धास्पद नहीं कह्दा जा सकता । सम्मतिप्रकरण के टीकाकार अभयदेवसूरि और उनके पूर्वपश््धर आचायों को भी
राजगच्ठपद्चवल्ो में और माणिक्यचन्द्रसूरिकृत पार्शनाभचरित्र ( रचना सं० १२७६ ) में चन्द्रगच्छीय के साथ साथ
राजगच्छीय भी बताया है | जम्रकि वि स १२४८ में रची गई सिद्धसेनसूरिक्ृत प्रवचनसारोद्धारकी टीका में टोकाफार ने
प्रस्तुत अमयदेवसूरि से भनुक्रम से अपनी पूर्वेपश्परम्परा दी है किन्तु उसमें चन्द्रगच्छ के सिवाय अन्य किसी गष्छ का
उल्छेख नहीं हुआ है। इस' सम्बन्ध में प्रभावकचरित्रकार प्रभाचन्द्रसूरि ने धनेश्वरसूरि ( अभयदेवसूरिशिष्य ) पूर्वावस्था
१५ तत्प्टाणत्रकौस्तुभ समुद्तः प्रयुम्ननामा ह्वि य- .. । तच्छिष्यो5भयदेवसूरिरसभो मिध्यात्ववादित्॒जमादोन्माथकर, अ्रश्निद्ध-
महिम स्वाद्वादमुद्राद्वित ॥६८॥ अ्रैश्ैत्ररच्छे प्रकटप्रभावी धनेश्वर[) यरिरभूच्च तस्मात् । आश्ीद्विनेयोडजितर्सिदयूरिः सिंद्दोपमों
वादिमतशजेषु ॥६९॥ (श्री थिंघी जैन प्रन्थमाला द्वारा प्रदाशित “विविधगच्छपट्ावलीसंप्रह” गत राजगच्छपट्टावली पृ० ६८)।
२, प्रस्तुत पार्चनाथचरित्र की स्भातमडारस्थ ताडपन्नीय प्रति में अ्न्थकार को प्रशस्ति में सलम्मतिटीकाकार अमयदेबसूरि के
पद्घर शिष्य घनेश्वरस्रे के बदछे लिनेश्वरचरि बताया द्वे, देखिये पू० पा० आगमप्रभाकर मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी और डें। श्री
भोगीलारऊ ज साढेसरा द्वारा सपादित एछांबॉ०2ए८ ० रिवोग्र-ीढर्श खराध्यापध्टाफराड गा धार विव्गरधक्षीत गण
छशब्मापेश, ए्थागर०87 (रिया (४०) ४४८ 344 1 तथा पूज्यपाद प्ज्ञाचक्षु ज्ञानज्योति प श्री झखुखलालजी एब व श्री
बेचरदास्जौ दोशी ने भी प्रस्तुत पाश्चेनाथचरिश्र छी ग्रवास्ति के उल्छेख में जिनेश्वरथरि को ही बताया है, देखिये पुजाभाई झेन
ग्रन्थमाला का छट्ठा अन्धाहु झप से अकाजित सम्म्रतिप्रकरण (गुजराती भाषा का) ए० ८५ । मेरा नम्र मत यह है कि द््न
पार्बनाथचरित्र को अ््मस्ति में लिपिकार दी अस्ावधानी के कारण घनेश्वर के स्थान पर जिनेश्वर लिखा गया होगा । मेरा भू
अनुमान अस्तुत प्रश्वस्ति के पाठ से ही अध्येता को सुसगत लगेगा इसलिए यद्द पाठ देता हूँ-“ विद्वन्मण्डलसौलिमण्डनपम्रणि प्रकृत्तपो5-
इमणिनिग्रन्थोड्पि जिनेश्वर समजनि श्रौमांस्तत सदूगुरु । य स्फूजेद्युणपुजमुजजगतीनिष्णो पुर प्राज्षलान् वादे वादिवरान् विजित्य
विजयश्रीसप्रद्द सव्यधात् ॥ ” यहां “निम्नन्थोडपि जिनेश्वर ,? इस वाक्य में “निमप्रेन्थ ” शब्द के द्राथ ' जिनेश्वर ? शरानन््द असगत छग्गता
है । यदि जिनेश्वर के स्थान पर 'धनेश्वर ' शब्द छगाया जाय तो “निप्रेन्योडपि धनेश्वर ” यह सुसंगत छगेगा । कहने का मेरा
तातपय यद है कि 'जो आचार अकियन द्वोने पर भी धनेश्वर द्वै! इस विराघामासालकार में “* अकिशन होने पर भी जिनेश्वर है”
यद्द किसी मी रीति से मेल नहीं खाता दै । अत इसमें लिपिकार की हि क्षति मारुम होती है ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...