श्रीमद्भागवत समन्वय | Shrimadbhagvat Samanvya

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Shrimadbhagvat Samanvya by रामस्वरूप शर्मा - Ramswarup Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय ] : अष्टमस्कन्ध भाषांटीका सहित। ( ९४५ ) वेभूतानां सर्वेभतैमयों विभुः ॥ १६ ॥ श्रीमगवालुवांच ॥ ये हैं| हँतां । गिरिकन्द्रकाननप््‌ ॥ वेत्रकीचैकवेणूनां गुश्मानि सेरपादपान॥ १७॥ णीरमानि पघिण्ययानं ब्रह्मणो मे शिवंस्प चे ॥ जीरोद॑ मे प्रिय * छ | २८४६ 2९ २७ मे ख्तद्ीप वे भौखर।॥ १८ ॥ अ्रीपैंत्स कोस्तु्म मौलां गैंदां कोमोदेकी ० मे ॥ सुँंदशरन पाश्वैजन्य सुपर्ण पतगेवरस ॥ १९ ॥ शेष से मैंस्कलां 9 जु च्द् ३ ४७ ३45 ज ८७ वट ४९ 3२ । । सूह्षमां श्रिय॑ देवी मैंपरा श्रयां ॥ ब्रँमाणं नरिद्शपि भेषे भेहादमेवे चे ३9 का जे 4 ९ ( 73 | आप 0९ ॥ २० ॥ मत्स्पकूमेवर्रॉहायरवर्तारेः क्ेंतानि मे ॥ केंमीण्यन॑तपुण्वानि सर्य सोम ' हुताशनप्‌ ॥२१॥ मैप सँल्यमज्यक्ते गोविंगीरधमेमर्न्ययम ॥ दौक्ष यणीघेमपत्नीः सोमकैश्यपयोरापि” ॥ २२ ॥ गैडां सरस्वती नैंन्दां कीलिंदी : सितेवारणम॥ झैँव म्ह्मऋषीन्सत (ण्यिछोकांश मानवीन।।३॥ उत्थायापररा- ' चति भेयताः सुसेमाहिताः ॥ रमरन्ति मम रूंपाणि मुच्यन्ते ' हनसी5खिलात ७ ८ ५ १10०७ ॥ २४ ॥ ये मां सैतुवन्त्येनेनांस प्रतिवुद्ध निशात्यये !। तेपां भाणात्यये चाह दर्दोमि विभल्ा मतिम्म | २५ ॥ श्रीजुक उवाच ॥ इंस्यादिददय हँपी-। सकल भतात्मक, स्वेव्यापी, श्रीहरि प्रसन्न होकर, स़कछ प्राणियों के सुनते हुएउप्त गनेन्द्र से कहने छगे )! १६ ॥ श्रीमगवान्‌ ने कहा 'क्ते हे पुत्र ! जो पुरुष. मुझे, तुझे, और इस सरोवर, त्रिकूट पवत, उस में की गुहा, वन, वेत, खोखले बांप्त, ठोस वांस इन के झ्नद्दे, देववृक्ष, इस चित्रकूट पवत्र के शिखर;ब्क्मा जी के मेरे ओर शिव जी के | निवासस्थान, क्षीरस्तागर और देदीप्यमान श्वेतदीप, यह दोनों मेरे प्रियस्थान, श्रीवत्स- | चिन्ह, कौस्तुममाणि,वे नयन्तीमाल!, मेरी कोमोद्की नामक गदा, सुदशनचक्र, पाज्चनन्य | शंह्, पक्षिराज गरुड, मेरी सूक्ष्कला शेष, मेरे आश्रय से रहनेवाछी द्मादिवी, ब्र- हानी,-नारदऋषि, शिवनी, प्रल्हाद; मत्स्य कम ओर वाराह आदि अवतारों के द्वार करेहुए मेरे परमपुण्यकारी कमे, सूये, चन्द्रमा, अग्नि,प्रणव (37), सत्यभाषण,माया, गो, ब्राह्मण, अविनाशी धंग, दक्ष की कन्या जो घमं, सा और कश्यपका स्रा थीं; गगा प्ल- रस्वंती, नन्‍्दा;यमुना ऐरावत, धुत्र, सातत्रह्मर्षि और पविन्रकीत्ति धार्मिक मनुष्य तथा मेरी विभतियों का जो पुरुष प्रभातकारू के समय उठकर आर पावित्र होकर एकाग्र अ- ; न्तःकरण से स्मरण करतेहें वह सकछ पातकासे छूटनातेहं॥ १६॥१७॥१ ८॥१९॥२ ०॥ ॥२१॥२१॥२३१॥२४॥ ओर हे रानन्‌ ! अ्रभातकाढ के समय उठकर जा पुरुष इस तर | कहेहुए स्तेत्से मेरी स्तुति करतेहें उनको मैं अन्तकाल में निमेलत वृद्धि देताहँ ॥ २५ ॥ , श्रीशकदेवनी कहते हैं क्रि-हे राजन्‌ ! इसप्रकार उस गनन्द्र से कहकर आर अपन 'क 3७७४५ 3>+4०3+ >क८++ तक




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