अथर्ववेद भाष्यं | Atharvaved Bhashyam

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Atharvaved Bhashyam (khand - Xii) by सायाजीराव गायकवार्ड - Sayajirav Gayakvard

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्‌० ९ [ ४७ | द्वादर्श काणड्स ॥ १२ ॥ ( २,१०९ क्स्या [ कन्या आदि राशि ज्योतिश्चक्न ] में है, ( भूमे ) हे भूमि | ( तेन ).डस | तेज ] के साथ ( अस्मान्‌ भ्रपि ) हमें भी ( सं सूज़ ) मिल्रा, ( कश्चन ) कोई भी [ प्राणी ] (मा ) घुझ से ( मा द्विक्षत ) बैर न करे॥ २५ ॥ भावा्--पृथिषी का आश्रय लेकर संसांर के देहधारी मनुष्य आदि खब प्राणी भौर ध्न्तरिक्त के तारागण आदि सब लोक स्थित हैं, बैसे ही मनुथ सब प्रकार उपकारी और तेजस्वी हो फर विश्नों का नाश करूँ॥ २५॥ शिला प्ूमिरिश्म| पांसुः सा प्रूसिः संघ ता घता । तस्य हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकर नमः ॥ २६ ॥ शिला । प्ूमिः । अश्सां । पांझः । सा। सूर्तिः । सम-धृ'ता । घता ॥ तस्य । हिरण्य-वक्षसे । पृथिव्य। झक रसू। नम :॥२६॥ भाषाथं--( भूमिः ) भूमि ( शिक्षा ) शिल्रा, ( अश्मा ) पत्थर और ( पांसुः ) धूलि है, (सा ) चह ( संघुता ) यथावत्‌ धारण की गयी ( भूमिः ) भूमि ( घ्रता ) धरी हुई है। ( तस्यै ) उस (हिरण्यवक्तसे ) खुबर्ण आदि धन छाती में रखने वाली (पृथिव्यै ) पृथिवी फे लिये ( नमः अकरम ) मैंने अ्रश्त किया [ खाया ] है ॥ २६ ॥ भावारथ--जिस भूमि पर अनेक बड़े छोटे पदार्थ हैं और जिस में अनेक रत्न भरे हैं, उस पृौियी के द्वित फे-लिये मनुथ भ्रप्त जञक्त आदि पदार्थ खावे ॥ २६॥ यहरया वक्षा चौनस्पत्या अवास्तिष्ठन्ति विश्वहां । पथिवीं विश्वधांयस चताम च्छावदामसि ॥ २७ ॥ कन प्रीती द्तोौ गतौ-यक, टाप्‌ च। कन्या कमनीया भधषति क्ेयं नेतव्येति था कमनेनानीयत इति वा कनतेर्वा स्थात्कान्तिकर्म एुः-निरु० ४। १५ | मेषादित पष्ठे राशी । ज्योतिश्चक्रे ( बर्चः ) तेज्ः (यत्‌ ) (भूमे ) ( तेन ) चर्चा ( अ्रस्मान्‌ ) ( श्रपि ) ( संखुज ) संजनय । संयोजय | अन्यत्‌ पूर्व वत्‌-म० २४ ॥ २६--(' शिक्षा ) क्ष द्रपाषाणः (भूमि) (अश्मा) प्रस्तरः ( पांछुः ) धूलिः (सा ) (भूमिः ) ( संघृता ) सम्यग्‌ धारिता ( घुता ) स्थिरा ( तस्‍्यै) -(हिरण्यंबच्तसे ) हिरण्यानिं . छुपर्णादीनि रत्तानि प्चसि-मध्ये यस्यास्तस्थे (पृथिव्य ) ( अकरम ) फ़तवानस्मि ( नमः.) अन्लम-निच० २ ्ध




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