अथर्ववेद के सुभाषित | Atharvaved Ke Subhashit

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Atharvaved Ke Subhashit  by दामोदर सातवलेकर - Damodar Satavlekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काण्डीका परिचय ] स घुघ्म्या उपमा अस्य चिष्ठा+- (४1१1१) इस (ज्ञाबी) ने हस प्रहाके भाभारस्थानमें उपम्रा देने योग्य ( यूर्यादिकोंकों ) देख! ( और ये सूर्यादिक गोर दैं ) पैसा लाना । सतश्च योनि असतश्य वि घः ( ४१॥ )-- उसने पद्‌ भौर नलसदफे टर्पांत्तेस्थानकों बिशद्‌ छिया। इयं पिच्या राष्ट्री एत्वग्रे प्रथमाय जनुपे कुधने्ठाः ( ४१1२ )-- यद्द भुयनमें रहनेदाटी तेजस्वी वितृ- शक्ति प्रधम जन्मके छिये भाग बदती है । तस्मा एतं खुसचे प्यार्मछं घर्म श्रीणन्तु प्रथमाय धास्यवे-- उस पहिके सर्वाघारके छिये इस पे शस्वी, उुझोंद्ो हव्रानिवालु, कीलछासे शक्ति यज्ञकों करें ॥ रुसकी मीठिके किये प्रशखतम कमे करें । प्रयो जले विद्वान भस्य यन्घुः विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति ( ७१३ )-- जो विद्वादु शतक भाई द्ोोता है वह प्र देवोंके जन्मोंद्रा वर्णन करता है । हर अद्म बह्मण उज्ञभार भध्यास:-- शक्षके मभ्यसे ज्ञान प्रकट हुआ | नीचे! उच्चै! खघा आभि प्र तस्थौं-- नीदेसे, उच्च सागसे लपनी धारणशक्तियाँ फैछ रही हैं । सदहिद्यिः स पुथिब्या! ऋतस्था। ( ४३४ )-- बह ( धभु ) धृछोक भोर वही प्रधियौके ऊपर सत्य निपमोका प्रवतेक है । मद्दी क्षेत्र सोेद्सी अस्कमायत्‌-- डसीने भाहाश भौर पृषिषीरूषी घर स्पिर किया। | मद्दान्‌ मद्दी अस्कमायपत्‌ वि जातो चां सद्य पाथियं च रज्ञ1-- रस महान ( प्रभु ) घुछोक कौर पृथिदी क्ो-भम्तरिक्षको-घरके समात सुस्यिर किया। घ्रहस्पतिदवता तस्य सप्राद ( ४४१५ )-- ज्ञानझा स्वामी प्रभु इस सदका सप्राटू है । इमम्तो यि यसरतु विद्याए-- ऐेशसी क्षानी बचमस रीठिप्ते यहाँ रहते दें । चूने तद॒स्य काथ्यो द्विनोति मद्दों देयस्प पृब्पस्य घाम (४॥१।६ )-- इस प्रादोन महात्‌ पश्रम॒दे आामहझा दणेतग शानी हो करता है । (५५ प॒प जब्े यहुमि। -साकमित्यथा पूर्व अर्घे विपिज्ते ससन्‌ चु-- पद्द बहुतोंके साथ टरपन्न हुआ, ( पर यह विशेष शानी हुआ ) भौर याडीडे छोग मे भाकाइमें छूयें भानेपर मी सोते रहे | (इस कारण ये उच्नत नहीं हुए । ) यो अर्थर्वा्ण पितर देवयन्ध घुहवस्पति ममलाध गच्छात्‌--- ( ४४१।७ ) जो स्थिर पित। देवोंके बन्धु जानी अभुको नमरहार करके उसको टौक करू ज्ञागवा है । स्व विश्वे्षा जनिता असः-- ' दे प्रमो | थ्‌ सपझा जनझ हो ? ( पा जानता है । ) काविदेंो न दभायत्‌ खघाधान-- ( उप शानीो ) अपनी घारण धाक्तिधाडा देव कंप्ी दुवाता नहीं ) य आत्मदा बलदा यस्य विश्व पपास॑ते प्रशिप यस्य देवा॥ ( श २11 )- मो भारिवद् सामध्य भर घछ देता है, भौर सब देव जिघकी भाशाका पान करते हैं ( पेसा एक देव है। ) योडस्पेशे द्विपदो यश्चतुप्पद)-- जो द्िपाई भौर सतुष्पादोंचा पुक स्यामी दे । यः प्राणतो निमिषतों मदित्या एको राजा ज्षणतो यमभूच-- ( ४११ )- जो प्राण घारण करनेवाझ्ले मोर भरांले यूइनेदाडे भगवका एकमात्र राजा दे | यस्य छायाउस्ते यस्य सृत्यु/--> शिक्ते झाश्नयमें रहना कमरा प्राप्त करना है, भौर (डिप्ड़ा भाभप छोडना ) खत्यु प्रात करना दे ( वह अगवक। पुर राघा है। ) य॑ फ्रन्द्सी अवतब्यस्कमाने (४1३३ )-- छदने मिडनेवाडी दो सेनाएं जिसकी शरण जाइए संरक्षण प्राप्त करदी है । ह मियसाने शोदसी अदन्वयेथास-- इानेयाके भाशश कर प्रपिवी सदापाये मिप्तदों पुडारते दें । यस्यासी पन्‍या रखसों विमाना-- मिसकी प्राहिशा यह रजोछोकछा मांगे दिशेष माननीय हैं। यस्य चौरवी पृथियी थ मद्दी यस्याद उर्दन्तारिक्षम्‌। यस्पासी छरो बितसों मदित्या ( श३॥४ )-- पिछड़ी मद्दिमासे घह धुछोक बहा हे, यह विर्दृत




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