आत्मज्ञान | Aatmagyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
162
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका । २श्५्
हेतुसे कद्दते हैं। उसके दो पांव तोडने नहीं हैं । इस कारण कर्म
र शाव का सम॒च्चय द्वी उन्नतिका साधक है।
कह यहां ऐसा प्रश्न कर गे कि मुक्त अवस्था ज्ञागति आदि
अवस्थाएं कहां है? इस शंकाके उत्तरसे निवेदन है कि शरीरफे
होने और न होनेसे मक्ति और अम॒क्तिका फोई संबंध नहीं है।
शरीरम रहते हुए सी आत्मा मक्तिका अनभ्॒व कर सकता हे औ-
र शरीरत्याग होनेपर भी आत्मा बंधन की अवस्थाम रह सकता
है | मुक्तिका हेतु ही ओर है । “आत्माकी शक्तिका अनुभव करना
. और अपने आपको बंधनोसे अछिप्त देखना म॒क्ति है। ” इसलिये
, यह शरीरम काय करते हुए भी प्राप्त हद ती है। ओर इसकारण
चारों अवस्थाआओंका होना इसके लिये घातक वहीं हे; प्रत्यत आ-
त्माकी विकलित शक्तिका अनभव करने के छिये इसका जागति
की आवश्यकता होगी । यही मख्य हेत हे कि ईशोपनिषद् तथा .
भगवद्दीता आदिम ज्ञान और कर्मका समुच्चय कहा है। और कि-
सी एक ही का स्वीकार नहीं किया | आशा है कि पाठक इस समु-
च्चयका महत्व जानगे ।
(१२) इस अध्याय आये हुए आत्मा वाचक
शब्दों का विचार |
पहिले मंत्रम “ ईश ” शब्द है, वह “स्वामी, मालिक, राजा,”
का भाव बतावा है। इससे आत्माका स्वामित्व अथवा राज्यशासन
किसी दूसरे “ अनीश ” पर है, यद्द बात सिद्ध होती है और इस
छिये इस जगत में राज्य शासन रूप कर्म यह आत्मा करता ह
यह सिद्ध हैे। जेंला लेदक का कमे हैं व सा स्वाम्रीकाभी कम हे |
स्थामी होनेपर कम छूटता नहीं हैं, परतु बढता हैं|
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