आत्मज्ञान | Aatmagyan

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Aatmagyan by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका । २श्५्‌ हेतुसे कद्दते हैं। उसके दो पांव तोडने नहीं हैं । इस कारण कर्म र शाव का सम॒च्चय द्वी उन्नतिका साधक है। कह यहां ऐसा प्रश्न कर गे कि मुक्त अवस्था ज्ञागति आदि अवस्थाएं कहां है? इस शंकाके उत्तरसे निवेदन है कि शरीरफे होने और न होनेसे मक्ति और अम॒क्तिका फोई संबंध नहीं है। शरीरम रहते हुए सी आत्मा मक्तिका अनभ्॒व कर सकता हे औ- र शरीरत्याग होनेपर भी आत्मा बंधन की अवस्थाम रह सकता है | मुक्तिका हेतु ही ओर है । “आत्माकी शक्तिका अनुभव करना . और अपने आपको बंधनोसे अछिप्त देखना म॒क्ति है। ” इसलिये , यह शरीरम काय करते हुए भी प्राप्त हद ती है। ओर इसकारण चारों अवस्थाआओंका होना इसके लिये घातक वहीं हे; प्रत्यत आ- त्माकी विकलित शक्तिका अनभव करने के छिये इसका जागति की आवश्यकता होगी । यही मख्य हेत हे कि ईशोपनिषद्‌ तथा . भगवद्दीता आदिम ज्ञान और कर्मका समुच्चय कहा है। और कि- सी एक ही का स्वीकार नहीं किया | आशा है कि पाठक इस समु- च्चयका महत्व जानगे । (१२) इस अध्याय आये हुए आत्मा वाचक शब्दों का विचार | पहिले मंत्रम “ ईश ” शब्द है, वह “स्वामी, मालिक, राजा,” का भाव बतावा है। इससे आत्माका स्वामित्व अथवा राज्यशासन किसी दूसरे “ अनीश ” पर है, यद्द बात सिद्ध होती है और इस छिये इस जगत में राज्य शासन रूप कर्म यह आत्मा करता ह यह सिद्ध हैे। जेंला लेदक का कमे हैं व सा स्वाम्रीकाभी कम हे | स्थामी होनेपर कम छूटता नहीं हैं, परतु बढता हैं|




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