परमाध्यात्मतरंगिणी | Paramadhyatmatarangini

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ख) शांति वाई जिस रुम्य आधदाय महाराज के स्मत्त दीचा देनेकी प्राथना करने खडी हुई और जो संसार का स्वरूप वर्रान क्रिया वह बडा ही महत्त्वशाली था | इसके बाद आचार्य मद्दाराज ने संघ के साधु साध्वियों, उपस्थित जनों तथा शाति बाई के साता पिता और श्वसुर पक्तुके लोगों से अनुमति प्राप्त कर आर्यिका बनने की प्रथम परीक्षा केश लोच करने की आज्ञा दी | ह अब शांति बाई ने चारित्र धारण करने में अपना उत्साह दिखलाते हुये अपने कोमल हार्थंसिं चिक्त श्याम लंबे अपने सस्तक के केश उखाडने प्रारम्भ किये उस समयकी गभीर शात्त मुख मुद्रा देखते ही बनती थी | उपस्थित जैन अजैन १४-१६ हजार जनता जय जयकार बोलते तृप्त न होती थी। इसके वाद अन्य ससकार किये गये ओर नाम विद्यासत्ति रखा गया। आर्यिका का चारित्र निर्दोष निर्विन्न पल्ता रह इसलिये अनेक वर्षोकी तपस्विनी आर्थिका इन्दुमति माता जी के ऊपर इनकी सरक्षुकता का भार सोपा गया और तबसे इनकी छत्र छाया में शातियाई पूव्य विद्यासति ब्रन कर. आत्मवल्याण कर रही हैं और आर्थिका सुपाश्वमत्ति जी से पढ़कर विुपी बनने में दत्तचित्त हैं. ; कि ' ह अतराय विजय दीक्षा के दिन उपयास करने, का नियम दे इसलिये उसदिन मंगलवार को तो उवचास था ही परध्तु 'पारणा के दिन अन्तराय्‌ आजाने से आहार न दो सका, इस तरह ल्गावार ६ दिन तक अन्तराय बरावर आते रहे और आप धर्य शाति के साथ उस अन्तराय को पालती रहीं। लोगों के पूछने पर आपका उत्तर होता था कि--समाधि के लिये द्वी वो दीक्षा प्रदण की है, अन्तराय कर्म को आहार में बाधा देनी है तो दे, में अपने त्रतन्तियम से विचलित न होऊगी | आखिर सातवें दिन आपका आदर निरत्तराय हुआ तब सव लोगों की चिन्ता दर हुई | इस तरह आप इढतापूर्वाक आर्यिका के ब्रत पालने की परीक्षा में सफल हुईं ः ज्ञान दान और धन्यवाद शांतिवाई के पिता सेठ नेमिचंद्जी वाकलीवाल धार्मिक श्रवृत्ति के उदारचित्त संपन्न गृहस्थ है | नेमिचन्द माणिकचन्द एएड को० नामसे आप का व्यापार शिवसागर (आसाम) में है |-आपने अपनी पुत्री शांतिबाईकी आयिकादीज्ा के समय १०००) एक हजार रुपया का दान देनेकी घोषणा की थी परन्तु उसके वाद आपने उसे बढाकर १५००) पंद्रहसों रुपया करदिया इसके बाद आचार्य श्री १०८ शिवसागरजी महाराजके सदुपदेशसे समयसारकलश (परमाध्या- त्मतरंगिणी ) को संसक्षत और हिंदी टीका सहित अकाशित करने का छुल व्यय (१४ सी से अधिक व्यय हो तो भी) देना स्वीकार क्रिया (यह कुल व्यय उनीस सौ तीस १६३०२० हैं) आपकी इसी उदारतासे '्रेयोमार्ग! मासिक पत्रके ग्राहकों को यह ग्रन्थ उपहार छरूपमें दिया जारहा है अतः धन्यवाद है। - ज्ञानावरणी कर्मका चय सम्यज्ज्ञानके दानसे होता हैं| जिनवाणी से उत्तम अन्य कोई सम्यम्ज्ञान नहीं है इसलिये आपका अनुकरण प्रत्येक दानीकी करना चाहिये | “महाचारी श्रीज्ञाल जैन काव्यतीर्थ




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