सिरि अन्तगड़दसाश्री | Siri Antagadadasashri
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
393
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२] [ सिरि अन्तगडदसाओ
चर्मशास्त्र और दादशांगी
महिमाशाली होकर भी साधारण धर्म शास्त्र मानव जयत का उतना कल्याण नही
कर पाते जितना कि उनसे अपेक्षित है । जिनके गायक या रचयिता स्वय हो सरागी,
भोगी एवं अज्ञान युक्त हैं, वे ग्रन्थ भला मानव का अभिलपित उपकार कहा तक कर
सकते है ? अत वीतराग, आप्त पुरुषो की वाणी या तदनुकुल सत्पुरुषो की वाणी ही
मानव-कल्यारा मे समर्थे मानी गई है ।
अनादिकाल की नियत मर्यादा है कि तीर्थकर भगवान को जब केवलज्ञान की
आप्ति हो जाती हैं तव वे श्रत धमें और चारित्र धर्म की देशना देकर चतुविध सघ की
स्थापना करते हैं ॥ उस समय उनके परम प्रमुख शिष्य गरणशघर प्रत्यक्षदर्शी त्तीर्थकरो की
अर्थ रूपी वाणी को ग्रहण कर उसे सूत्र रूप मे गृ थते है जैसे चतुर माली लता से गिरे
हुए फूलो को एकत्र कर हार बनाता है और उससे मानव का मनोरजन करता है।
गणधरो द्वारा गू थे गये (रचे गये) वे प्रमुख सूत्र-शास्त्र ही द्वादशागी के नाम से
कहे जाते हैं। जैसे कि कहा है--
अत्थ भासइ अरहा, सुत्त गथति गणहरा निउण ।
सासणस्स हियट्ठाएं तझो सुत्त पवत्तद 11
अर्थात् तीर्थकर भगवान अर्थ रूप वाणी बोलते हैं और गणघर उसको ग्रहण कर
शासन हित के लिए निपुणता पूर्वक सूत्र की रचना करते हैं तब सूत्र की प्रवृत्ति होती है।
आब्दरूप से सादि सान्त होकर भी यह द्वादशागी श्र् त अर्थ रूप से नित्य एव अनादि अनन्त
कहा गया है । जेसा कि नन्दी सूत्र भे उल्लेख है--
“से जहा नामए पच अत्थि काया न कयाइ नासी न कयाइन भवद्द, न कयाइ न
'भविस्सइ, भुति य, भवइ य, भविस्सइ य, छुवे नियए सासए अक्खए अव्वए अवदिए णिच्चे
एवमेव दुवालसगे गरिएपिडगे ल कयाइनासी ।”
अर्थात् पचास्तिकाय की तरह कोई भी ऐसा समय नही था, नही है, और नही होगा
जबकि हाद्शाँगी श्र्त्त नही था. नही है या नही रहेगा | अतः यह ह्ादशागी नित्य है ।
जैसाकि पहले कह गए हैं कि शब्द रूप से द्वादशागी सादि सान्त है। भत्येक तीर्थंकर के
समय गणघरो द्वारा इसकी रचना होती है । फिर भी अर्थेरूप से यह नित्य है | इस प्रकार
महर्षियो ने शास्त्र की अपौरुषेयता का भी समाधान कर दिया है। उन्होने अर्थेरूप से
शास्त्र ज्ञान को नित्य अपौरुषेय एवं शब्द रूप से सादि पौरुषेय कहा है 1
श्वैत्ाम्वर परम्परा के अनुसार अब भी द्ादशागी के ग्यारह अ्रग शास्त्र विद्यमान
हैं और सुघर्मा स्वामी की वाचना प्रस्तुत होने से इसके रचनाकार भी सुघर्मा स्वामी माले
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