यज्ञ सरस्वती | Yagya Saraswati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २ ) इस ग्रन्थके प्रकाशन का सर्वश्रेय श्रीमान्‌ अलबरेन्द्र महाराज को ही है | उनही की ऋृपापूण सहायता का फल है कि यह ग्रन्थ सर्वाज्ञ सुन्दर तेयार होकर विद्वत्‌ समाज के सम्मुख रक्खा गया है। श्रीमांच अलवरेन्द्र महाराज श्री १०८ श्री सवाई तेजसिंहजीवहादुर- पक्के सनातनधर्मावलमभ्बी साथ ही ब;त विशेष विद्यानुरागी भी हैं । श्रीमान्‌ प्राय: नित्य ही कुछ समय देवा राधन तथा शा्त्रेय गूढ़ तक्त्वावधान में लगाते हैं। श्रीमान मे अलो कक गुण तो यह है कि इस युग में इस युवावस्था और इतने बड़े ऐश्रये एवं प्रभुत्व होते हुए भी किसी प्रकार का व्यसन नहीं है। खास कर जिस भ्रकार ज्षत्रियों में मद्य तथा धूम्रपान थोड़ा या बहुत एक सामान्य और स्वाभाविक हुआ शरता है उससे भी आपको एक प्रकार घृणासां है, यहां तक कि आपको यह कड़ी आज्ञा है कि अपने परिकर ( ?७८४००७/ हक ) में कोई भो सद्यपी नहीं रकक्‍्खा ज्यय। श्रीमान्‌ का एक नारी ब्रह्मचारी का हृढ़ स ऋल्प भी सराहनीय है। महाराज का रददन सहन आदि रूब कुछ बहुत सादगी का है, मिलनसारी तो इननी बढ़ी हुई है कि आप तक पहुँचने के लिए गरीब प्रजा को भी किसी प्रकार की हील हुज्जत में नहीं जाना पड़ता है। सबसे बड़े प्रेम से मिलते हैं और यथः योग्य समुचित वर्ताब करते हैं। आपका हृदय सबंदा दयाद्र रहता है। यह अवश्य स्मरण रहै कि जेसा प्रायः भ्रीमानों के लिये प्रशसा के रूपमें ऐसी बात कही या लिखी जाया करती हैं वह बात यहां नहीं है, जो कुछ लिखा गयः है वह अक्षरशः सत्य है अतः यथार्थ में इन सब अलौकिक गुणोंसे विभूषित श्रीमान्‌ इस युग के एक आदर्शद्रपति हैं और यह आदि से ही ईश्वरदत्त श्रीमान्‌ में स्वाभाविक अद्भुत विलक्षणता है। इत्यादि आपके सदुगुणों का यदि पूणरीदा विवरण लिखा जाय तो बह भी एक अलग भ्रन्थ तैयार हो सकता है यह तो सक्तेप में कुछ दिग्दशन मात्र करादिया गया है | श्रीमान्‌ की पूज्य पिताजी पर पूरे भक्ति और श्रद्धा थी। आपने यज्ञॉपब्रीत में उनसे ही गुरु दीक्षा ली थी। राज्याधिकार प्राप्ति के अनन्तर ही आपने स सम्मान उन्हें अलवर बुलाकर राजगुरू पदोचित प्रतिष्ष सादर अपर की | उनके भ्रन्थों के विषय से भी आप पूर्ण परिचित हैं ओर इन श्रन्थों का शीघ्र प्रक'शन हो इसके लिये पूरे उत्साह रखते हैं | इस अन्थ का प्रकाशन तो श्रीम/च की सहायता से हो ही चुका है आगे भी आपसे बहुत कुछ भरोसा है । इन पंक्तियों के लेखक पर ते श्रीमान्‌ की बड़ी सहानुभूति रहती है; सतत अपने स्मरण | रखने की अनुकम्पा किया करते है श्रीमान्‌ की जेसी असीम कृपा है उसके लिये यह जन इतना कृतज्ञ है कि उस कृतज्ञता के प्रकाशन के लिये शब्द नहीं है । जगनरियन्ता जगदीश्वर से यही हार्दिक प्राथना है कि ऐसे सनातनथम प्रतिपालक आदशनृपति को सकुदुम्ब चिरायु करें इनका प्रताप) ऐश्वये और यश दिन दिन बढ़कर दिंगन्त व्यापी हो ॥ शुभम्‌ ॥! जयपुर सिटी १ तब आऋज9. विः्नशर्म्माओभा।




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