विरह - पदावली | Virah-padawali

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Virah-padawali by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विरह-पदावली डर शिर पड़ी हों + फिर दया था छोघ्र ही मेघने बरसकर सुरति ( ध्यान ) -कै जरसे उनका स्पर्श कराया । ( अब वे सब-की-सब उठकर .) श्रीतन्द- जीके द्वारपर आयीं गौर उन्होने देखा दोनो कुमार रथपर बैठे हैं और यशनोदाजी पृथ्वोपर लोट रही हैं। इस प्रकार द्यामसुन्दरका निष्ठुर रूप उन्होंने देखा । ( वे देखकर परस्पर कहने छगीं--अरे इनके ) कोन पिता और कौन माता है सम्पूर्ण सूष्टिकि रचनेवाले ब्रह्मा तो ये ही हैं ( इसीलिये इन्होंने ) किसीके साथ किसी सम्बन्चकी स्मृति नहीं रखी इतनेमें ही ) अन्यूर भी वाणीसे श्रीभगवन्नाम लेते हुए रथपर शीघ्रतासि चढ़ बैठे । प्रभुके कोमल शरीरको देखकर ( वे गोपियाँ ) बेचेन ्ो रही है । _ राग सारंग (२५ ) बिलु परे उपराग आज हरि तुम्द हे चठन कह्यो । को जाने उहिं राहु रमापति कत हे सोघ लदह्मो ॥ चह तकि बीच नीच नेननि सिठि अंजन रूप. रद्यो। बिरह-्संधि बढ पाइ सनौ इृठि है. तिय-बदन गद्य ॥ दुसद्द दसन सच घरत खमसित अति परस परत न सह्यो। देखो देव अस्त अंतर तें ऊपर. जात. बह्यो ॥ अब यह ससि ऐसौ लागत ज्यों बिच साखनहिं मह्यो । सूर सकछ रसनिधि दरसन विन सुख-छवि अधिक दी ॥ ( सुरदासजीके शब्दोंमें कोई गोपी कह रही हे--) इ्यामसुन्दर तुमने जो जानेकी बात कही सो यह ( तो ) बिना पर्व ( पूर्णिमा ) के ही ( शाज ) ग्रहण लग गया । हे रमाकान्त पता नहीं वह राहु कहाँसे ( इस चस्द्रमाका ) पता पा गया । ( जान पढ़ता है ) चह नीच ( अपना भवसर ) के वोच मंजनके साथ मिछकर था सो ( उत्त गमा और प्रतिपदाकी )




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