जैन-कन्या-बोधिनी भाग - 2 | Jain Kanya Bodhini Bhag 2

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Jain Kanya Bodhini Bhag 2 by रतन कुमार जैन - Ratan Kumar Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about रतन कुमार जैन - Ratan Kumar Jain

Add Infomation AboutRatan Kumar Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( ३ ) सकते हैं। उन लोगों ने ससार के सब पदार्थों वो दो प्रकर में ले लिये हैं । सुभद्रा- क्या सम पदार्थ दो दी प्रकार के हैं? जरा बताओ तो १ शाम्ता -लो सुनो | एक तो वे मिनमें जान है, और जो समभने, उिचारने व देसने क्री ताज़व रखत ५ । खुद एक जगह से दूसरी जगह चल फिर सक्रते हैं। जैसे मनुष्य, बैल, घोड़ा, चींटो भादि । इनयो जीय फ़ह्ते हैं। और दूसरे अजोय पढार्थ- निनमें जान नहीं होतो है, उनको जड़ उहत है । जैसेडेट, पत्थर लर्डी आदि । सुभद्रा--भोदो ! यद्द तो सचमुच बडी सो गो बात है । जीव भौर अजीय में तो सारी दुनिया आग बढ़िन ! शॉन्ता--हा, पर जग और सुनो) जीत भी दो तरह के दोते है । सुभद्रा--पे कौन पौनसे ? शाज्ता--यह फैल दताऊँगी । आज़ इतना दी पहुत है । सुमठा--बहुत अच्छा बहिन, में कल इसी समय आपके पास आाऊगी | जयजिनेन्द्र ! शान्ता--जयभिनेन्द्र !




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now