बेगाने घर में | Beghane Ghar Main

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Beghane Ghar Main by मंजुल भगत - Manzul Bhagat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“लो । बाप ने मारी मेढकी और बेटा तीरन्दाज़ ! एक सुर तेरे अब्या ने उठाया था और एक अब तू उठा !” गनपत ने मज़ाक किया । “व्म, हुई गवा राग-रग ? कहकर बनफुलवा उठने को हुआ, तभी उसे मनवा की पुकार भी सुनाई पड़ गई । “बापू” “ ओ बापू |” “रे मनवा, बापू को गोहराय लेव ।* चपी ने पीछे से आवाज़ दी । “अब गोहराय तो रहत हुई। अऊर का ढोल बजायी ?” मनवा ने जवाब दिया तो बनफूलवा फुर्ता से भीतर को भग लिया । “स्माला ! जोरू का गुलाम !” सबने ताना दिया। “जाई, घोड़ी सातिर चना भिजा आई 1” जगेसर उठ गया । पलटकर आया सो केवल गनपत को ही चारपाई पर बंठा पाया । “हम कह्टढे, के बज लिया होगा ?* अब तलक मालिक जगे बैठे है शहर लैवरेरी की बत्ती अब तलक जली है ।* उसने बताया गनपत उठ गया और लाइब्रेरी की तरफ हो लिया । चबूतरे पर चढ़कर देखा, मालिक एक अग्रुली हो ठो पर रखकर चुप चाप पोथी बाच रहे है। चारों तरफ कसी तो चुप्पी छाई है । पर, चबूतः पर तमाम चादनी छिटकी है। पीले गुलाव बड़े-वडे सितारे-से बेल में गुश् हैं। पर, मालिक को उस सबसे कोई सरोकार नही । मालिक का जीवन तो जैसे बडे हॉल की दीवाल-घड़ी की भाति एक् हो ठौर पर दिकूटिका रहा है। गनपत जिसे जीना कह सके वैसा कुछ भ॑ तो मालिक के साथ नही घट रहा । “एक वह पिछवाड़ा है, इस्ती कोठी के कि पाव धरते ही रेलवाई का भारड याद आ जायेगा। जिधर ताको बः उधर ही कोई ना कोई इजन भकाभक धुआ छोड़ रहा है। इसके बाद ग्रनपत से नीम तले नहीं पड़ा गया। वह खाट उठाक तीम तले / २




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