वाड्मयार्णव | Vadmayarnaw

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रकाशकीय वक्तव्य सन्‌ १९५९ में ज्ञानमण्डल लिमिटेडके प्रबन्धकारी सचालक श्री सत्येन्द्रकुमारजी गुप्तने मुझसे कहा कि सुना है कि महामहोपाध्याय पाण्डेय रामावतार शर्माका बनाया हुआ कोई सस्कृत कोश अभीतक अप्रकाशित पडा है, यदि वह मिले तो आप उसे अपने यहासे प्रकाशित कराइये ।' कुछ दिनोके बाद पटनामे में महामहोपाध्यायजीके सुपुत्र हिन्दी जगतृके लब्धप्रतिष्ठ आलोचक और निबन्धकार विद्ृदूवर आचाय नलिनविलोचन शमसे मिला और उदबत ग्रन्थ प्रकाशित करनेकी इच्छा प्रकट की । आचार नलिनजी मेरे अभिन्न मित्र थे। उन्होने मेरी प्रार्थना स्वीकार करते हुए कहा कि यदि ज्ञानमण्डलसे यह ग्रन्थ प्रकाशित हो तो मुझे अपार हे होगा । क्योकि पिताजीने एक बार मुझसे कहा था कि यह सस्कृतका वाडमयार्णव' नामक विश्वकोश स्वनामधन्य स्वर्गीय श्री शिवप्रसादजी गुप्त (ज्ञानमण्डल लिमिटेडके सस्थापक) के आग्रहसे तैयार किया गया है । बिहार सरकारने इसे प्रकाशित करनेका निरचय किया है और इसके प्रकाशनका भांर मिथिला सस्क्ृत प्रतिष्ठान” दरभगाको सौपा गया है। किन्तु कई वर्ष बीत गये, अभी उक्त ग्रन्थमे हाथ नही गाया गया । में तो अब निराश हो गया हूँ ।' सन्‌ १९६० में जब में फिर पटना गया तो श्री नलिनजीने जिल्द बँधी हुईं पाण्डुलिपि दिख- लायी ओर कहा कि इसमे इतना अधिक गिचपिच लिखा गया है कि इससे कम्पोज कराना असम्भव है। मैं अपनी देख-रेखमे इसकी सुपाठ्य प्रतिलिपि कराकर ओर उसका सशोधन करके आपके पास भेज दूगा । इस काममे एक वष अवश्य लगेगा ।' मै सन्तुष्ट होकर काशी वापस आया। श्री नलिनजीने अपने वचनके अनुसार अपने विश्वासी शिष्य श्री रजनजीसे प्रतिलिपि कराना शुरू करा दिया । किन्तु उसके कुछ ही दिन बाद श्री नलिनजीका १२ सितम्बर १९६१ ई० में निधन हो गया । उनके निधनका समाचार पाकर मुझे बहुत दु ख हुआ और मनमे निराशा हुई कि अब उक्त पाण्डुलिपि प्रकाशनाथ शायद ही मिले । किन्तु पटनेमे जब में श्री नलिनजीकी विद्वुषी धमपत्नी श्रीमती कुमुद शमसे मिला तो उन्होने कहा कि आप श्री रजनजीसे मिलकर प्रतिलिपिके साथ मूल प्रति छे ले और उसे प्रकाशित करानेका प्रबन्ध करे । यह सुनकर मुझे सन्‍्तोष हुआ । श्री रजनजीने अस्वस्थ रहनेपर भी आठ- नौ महीनेमे प्रतिल्षि तैयार करके मुझे सोप दी । मूल पाण्डुलिपि सहित प्रतिलिपि तो मुझे प्राप्त हो गयी, किन्तु श्री नलिनजीके न रहनेसे मे विषम स्थितिमे पड गया । यह प्रतिलिपि किससे शुद्ध करायी जाय, यह एक भारी समस्या उपस्थित हो गयी । क्योकि पाण्डुलिपि ऐसी है जिसे पढनेमे यत्रतत्र भूल होनेकी पूरी सम्भावना है । दूसरे नलिनजीने यह कहा था कि पाण्डुलिपिके अनुसार ही ग्रन्थ छपना चाहिये । बहत सोच-




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