श्री बीसस्थानक तप कथाएं | Shri Bisasthanak Tap Kathaye

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Shri Bisasthanak Tap Kathaye by मिलापचंद - Milapchand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ उक्कोसं दव्बध्यं, आराहिय जाइ अज्चुयंजाव । प्रावध्थयेंग पाव३ अन्तमुहुत्तेण निव्वार्ण ॥१॥ प्ेरूस्स सरिसवस्य, जत्तिय मित्त तु अंतरं होई। स्वथ्थय भावथ्थयं, अंतरभिह तत्तियं णेये ॥२॥ अर्थ--द्रव्य स्तवन को आराधना करने वाढछा उत्कृष्ठ बारहदें अच्युत देवढ़ोक तक नाता है। भाव स्तवन से अंतमुहुर्त में निर्वाण, सुख को प्राप्त करता है | मेर ओर सरसों में जितना अन्तर है उतना ही अन्तर द्रव्य स्तवन और भाव स्तवन में समझना चाहिये जिनेश्वर की पूजा भक्ति तीन प्रकार से बताई गई है वह इस' प्रकार है। एक साल्विकी, दूसरी राजसी और तीसरा तामसी । वीतराग प्रमु के गुणों के विषय में अत्यन्त लीन; दुःसह उपसर्ग होने पर भी निश्चछ मावयुक्त रहे तथा जिन चेत्यादि सम्बन्धो काय में आवश्यकता नुवार द्रव्य दे, मह।-महोत्सव पूर्वक यथा शक्ति निरंतर निःस्पहता से भक्तित करे वह प्रथम सालविकी भक्त समशझ्नना । इससे दोनों छोक में उत्तम सुख प्राप्त होते हैं । के इस छो हमें खुख प्राप्त करने के छिए अथवा क्ोगों को आकृष्ट करने के लिए या आजीविका के छिए लजिनेशवर की भक्कि करना राजसी भत्रिति समझना चाहिए। शत्रु का विनाश करने के लिए आपत्ति दुर करने के लियेऔर चित्त में अहंकार अथवा सत्सर घारण करके भगवान की भक्तति करना तामधी समझना । रानसी और तामसो भक्ति तो सब कोई




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