पिंगलच्छंद: सूत्रम् | Pingalchchhand Sutram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमोष्यायः । श्झ पाद के अन्त स्थित लघु की गुरु संज्ञा नहीं की दे उन्हों ने 'संयोगे गुर ( पा. सु, १४११) और “दीर्घ व ( पा. सू. १।४।१२ ) इन दोनों सूज्ों से संयोग से पूंजे- बर्ता रऊघु और दीर्घ इन दोनों को द्वी गुरु संज्ञा की है। पादान्त स्थित लघुवणे न संयोगादि दी दें और न दीघे दी, फिर इन्हे किस प्रकार गुरु संज्ञा करते दो इसलिये “न्ते? सूश्र व्यथं द्वी हे । इस पर वृत्तिकार का कददना दै कि पाणिनि ने व्याकरण शाख्र के लक्ष्यों को सिद्ध करने के ढिये वैसी द्दी संज्ञा की ओर पिन्नल ने छनन्‍्दःशाज्ञ के अयोजन सिद्ध करने के छिये और तरद्द संज्ञा की हे दोनों का प्रयोजन एक नहीं है फिर संज्ञा किस प्रकार एक दो सकती दे । “युरोश्व इलः? (पा.सू .३।३।१० ३) इत्यादि सूत्रोंसे युरुसंश्ञकबण जिनमें हो ऐसे व्यश्ननानत धातुओं से “अः श्रत्यय विधान करनेक्के रहिए पाणिनि ने संयुक्त व्यज्नों के पूर्ण वर्णा को ग्रुद संज्ञा की है। अतएव कुडिदादे (पा. भ्वा.घा. २७०) 'कुडि- वैकल्ये? (भ्वा, था. ३६२) हुडि “संघाते? (भ्वा.घा. २६९) “हुडि वरणे? (म्वा, था. २७७) इन धातुओं से “इद्तो नुम्‌ घातोः ( पा. सू , ४४१।५६५ ) से चुम्‌ करने पर एड? इन संयुक्त व्यज्ञनों के पूर्व लघु वर्ण के गुरु संज्ञा दो जाने से (गुरोथ्व इलः (पा.सु, ३३१०३) सूत्र के अनुसार अ। श्रत्यय हो जाता है। भौर ईकार उद्ारादि इजादि जैसे इंह चेशायाम्‌ ( भ्वा. था. ६३२ ) उद्द वितर्के ( भ्वा. था. ६४८ ) इत्यादि, धातुओं से 'इजादेश्च ग्ुरुमतोडटच्छःः (पा,सु. ३।१।३६) गुरुसंशकवणे दै जिसमें ऐसे इजादि धातुओं से आस भ्रत्यय होता है । इस सुन्न के अनुसार दी की गुरु संज्ञा करने के कारण आमू अत्यय दो जानेसे इईद्वाब्बक्े इत्यादि अयोग सिद्ध हो जात हैं । संयोगादि और दीध की गुरुस॑ज्ञा करने का प्रयोजन व्याकरणमें मिलता है परन्तु पादके अन्त स्थित लघु को गुरु संशाकरने का फल व्याकरण शात््र मे नहीं है इस लिये पाणिनि ने उनकी गुरु संज्ञा नहीं को दे परन्तु छन्दः शात्र में प्रयोजन है इसलिये पिज्वलने पाद % अन्तस्थित रूघुकी गुरु संशञाकी है। “बल? 'संपदू” इत्यादे अ्रयोगों मे अज्ञस्वार विखगोदि के पूर्व लघुबर्णकी भी गुरु संज्ञा पाणिनि ने प्रयोजन न रहने के करण नहीं की है; परन्तु छन्दः शात्र में श्रयोजन रहने से पिज्चजने उनकी गुरु संज्ञा की दे । अनुस्वारादिपूवे लघुबणों की ग्रुरु संज्ञा धाणिनि ने नहीं की है इसलिये क्‍या उन्दः्शाज्ञ के प्रयोजन सिद्धंके किये पिंक को भी उनकी गुरु संज्ञा नहों करना चाहिये १ इसलिये 'गन्ते? यद्द सृत्र व्यर्थ




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