उपदेश मज्जरी | Updesh Manjari

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Updesh Manjari by डॉ. दयानंद - Dr. Dayanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३३ ) पञ्चविशे - ततो वर्षें . पुमान्नारी तु षोडशे | समत्वागतर्वीयों तो जानीयात्कुशलोमिषकू ॥ : छान्‍्दोग्य- डपनिषद्‌ः में प्रातःसवन चोबीस धर्ष तक चर्णन किया हुआ है, यद पुरुषों की कुमार अच्स्था हे, चचालीस चर्ष तक मध्यलवन कहा है यही यौवनावश्थां है. और अड्तालीस वर्ष तक खायंसवन चर्णन किया है जो सम्पूर्णता की अवस्था है, इसके पश्चात्‌ जो समय आता है. वही उत्कृए्, समय विवाहादि लिये माना गया है, विधाह होने के पूर्व वेदाध्ययन अवश्य कराना चाहिये। इन दिनो प्राह्मणों ने अपने स्थार्थवश वेदाध्ययन छोड़ दिया है, मानो बिलकुठ नछठ कर दिया है खो प्रारम्भ द्ोना चाहिये, अथर्वेवेद्‌ प॑ अल्लोपनिंषद्‌ करके घुसेड़ दिया है यह मतलबी लोगों ने नये-नये इथोक बनाकर लोगों को श्रम में डालने 'के लिये रचकर डाल रफ्खे हे, सो बड़े ही छुःख की बात है, इस लिये ऐला हो कि स्थान-स्थांन पर- चेढ्‌- शालायें हो धनमें वेदाध्ययन कराया जावे, परीक्षा लिघाई जाथ अर्थात्‌ वेदाध्यथन को हर प्रकार से उचेजना मिले पऐेला प्रयत्त करना चाहिये । ; - द्ान-दान शब्द का आज़ कल जो अर्थ लेते हैँ वह नहीं पेटार्थ लोग कददते हैं कि--.. , 1 हक पराज्न दुलभं लोके शंरीराणि पुनः पुनः :॥ इत्यादि विवेचनमूलक ' दान सदा होता रहता है,




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