बृहदारण्य कोपनिषद् | Brahdaranyakopnishad

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Brahdaranyakopnishad by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) धशहतः! और 'आरण्यक' होनेके कारण इसका नाम ब्हदारण्यकः हुआ है। यह बात भगवान भाष्यकारने अन्यके आरस्ममे ही कही है। किन्तु उन्होंने केवछ इसकी आकारनिष्ठ बद्दताका दी उल्लेख किया है; वार्तिककार श्रीछुरेश्वराचायं तो अथेतः भी इसकी च्रद्दचा स्वीकार करते हैं -- “चुहच्वादूअथन्तोर्श्थाच्च चुहृ॒दारण्यक सततम्‌ 1? ( सं० चा० ९ ) उनकी यह उक्ति अक्षरशः सत्य है। साप्यकारने भी जेला विशद्‌ और विवेचनापूर्ण भ्राष्य इुहृद्रण्यकपर लिखा है चेसा किसी दूसरे उपनिषद्पर नहीं लछिखा। उपनिषद्भाष्यांमें इसे हम उनकी सर्वोत्कए कृति कह सकते हैं । इस प्रकार सामान्य दश्िखि विचार करके अब दम संक्षेप इसके कुछ प्रधान प्रसज्ञौका विग्द्शेन करानेका पयत्न करते है। अन्यधके आरस्ममें अद्यमेघ ब्राह्मण है। इसमें यक्षीय अहवफे अवयदोँ- में विरायके अवयवोकी दइश्टिका विधान किया गया है| इसके कुछ. आगे प्रजापतिके पुत्र देव और अछुरोके विश्वदका वर्णन है। इन्द्रियोकी देवी और आऊझुरी चूक्तियाँ देव और अखुररूपसे भी मनी जा सकती हैं| इन्द्रियाँ स्वभावतः चहिमुंख ही है । 'पराश्चि खानि व्यतणत्‌ स्वयस्भूः ।१ (क०.उ०२। १1१) अतः सामान्यतः वैषयिक या आखझुरी चत्तियोंकी ही प्रधानता रहती है। इस्तोले अछुरोको ज्येष्ठ और देवाकी कनिष्ठ कद्दर गया है। पुण्य और पापसंस्कारोंके कारण इन दोनों प्रकारकी चृत्तियों- का उत्कष और अपकरे दोता रहता है। शासत्रविद्दित कर्म और. उपासनासे दची छतक्तियोंका उत्कष होता है. और उन्हें छोड़कर स्वेच्छाचार करनेसे आखझुरी वृत्तियोंका बरू वढ़ जाता है। एक चार देवताओंने ,डद्मीथके छारा अखुरोंका परामच करनेकाः न्स्विय किया । उद्गीथ एक यशकर्मका 'अह्ल है, उसके द्धार- | का द्वार उन्होंने आछुरी द्च्तियोंको . दबानेका विचार किया। उन्होंने वाक्‌ , घाण, चक्षु, श्रोश्च और व्वकके' अभिमानी देचताआँखे अपने लिये उद्गान करनेको. कहा :। . उन देचताओंमेंस्े -




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