अथर्ववेद का सुबोध भाष्य भाग 1 | Atharvaved Ka Subodh Bhashya Bhag 1

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Atharvaved Ka Subodh Bhashya Bhag 1 by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीन काण्डोका परिचय ] ताख्ु स्वास्तजेरस्था दधामि, श्र यहईम एतु निऋतिः पराचेः । घ. २१०५ सुधझो पृद्ावस्थामें में घारण छरठा हूं । क्षय रोग ठथा अन्य सच कष्ट तुझसे दूर घढ जांच | अपनी रक्षोद्दामोबचातनः । म. धरदाव अप्नि रा्षप्तोंका नाश करके रोगोंडी दूर करनेवाका है। ( रष्ट:- रोगझूमि ) अनुसूर्यमुदयतां हृथोतो दरिमा च त्ते । गोरोदितस्प वर्णन तेन त्वा परिद्ध्मसि ॥ हा, १1२२११ तुर्दारा दृदयविकार तथा छामिला या प्रीछापन सूर्यो- दयके साथ भानेदाके लारू किरणेंकि छाल वणसे तुझे चारों झोर घेर कर में दूर करता हूं 1 किलासे च पलितं च निरितों नाशया पृषत्‌ हे, १1२३४२ इस शरीरसे कुष्ठ व सफेद धरूदे दूर कर । अस्थिज्षस्प किलासस्य तनूजस्य च यरवसि । दष्या कृतस्य ब्रह्मणा लए्ष्म श्वेतमनोनशम्‌ हा, १11२३॥४ दोषके कारण व्वचापर उत्पन्न हुए, भस्यिसे ठथा शरीरसे शश्पद्न हुए, कु्ठका ज्ञो रदचापर चिन्द है 3पडो दम ज्ञानसे दितश करते हैं । शेरमक शेरमभ पुनर्वो यन्तु यातवः पुनहेँतिः किमीदिनः । यस्य स्थ तमत्त, यो वः प्राहै- त्तमत्त, सवा मांसान्यत्त 1 भ. २२४।१ दे दघ करनेवाले शंख | तुम्दारे यावता देनेवाके शाख्र, ठया हे खाऊ छोगों ! तुम जिनके द्वो ठसको खामो, जिन्‍्दोंने तुम्दें भेजा है उनको खाभो, अपने हो मांप खाभो । ( हम सुरक्षित रहें 1 ) मिरिमेनां आवेशय कण्थान्‌ जीवितयोपनान्‌ । छू. २शधाए इन ज्ञोवित्तका नाश करनेवाले, पोड। देनेवाले कृ्रियों सो पद्दाइपर पहुंचाभो ( ये रोगकहृमि इसें कष्ट न दें 1) क्षेत्रियात्वा निर्कत्या जामिशंसाद हुद्दी मुख्ामि वरुणस्य पाशात्‌ | क्ष. २1 ७७ झानुवंशिक रोग, कष्ट, संदंधियोंसि कष्ट, दाह तथा वरुण पागमसे तुझे में छुड्दाता हूं । (*३ ) इृष्टमहए्प्रतहमथा कुसरूमतृद्म | अव्गण्ड्न्‌ स्सर्वास्छलुनान्क्रमीन्चचसा जम्भयामास ॥ ञ्, २३१२ दीखनेवाछे, न दीखनेवाले कृम्रेयोक्रो में मारता हूं। रेगनेवाले कृम्रियोंकों मै विनर करता हूं । घिस्तरे पर रहने- वाछे सब कृमियोंडो वचासे में न४ करता हूं । निःशालां घृष्णुं घिषणमेऋषायों जिघत्खप्‌। सर्वाश्वण्डस्य नप्त्यो नाशयामः सदान्वाः 0 हा. २1१४।१ घरदार नद्दोना, मबमीत होना, एकव चनी निश्चयात्मक बुद्धिका नाश करना, क्रोधही सव संतानें, दानवदृत्तियाँ छादिका दम नाश करतठे हैं । ग्राहिजंग्राह य्येतदेन तस्या इन्द्राम्नी प्रमुमुक्त- मेनम्‌ । भ. ३११।१ यदि जझइनेदाले रोयमे ६पछो पकड रखा हो, तो ठप पोडासे इन्द्र भौर भप्नि हपको छुड्ठावे 1 आ सवा स्वो विशतां घणंः परा शुक्वानि पातय 1 अर, 11२३॥२ तुम्दोर शरीरझ्य निजरण तुम्हें प्राप्त दो कौर श्वेत घब्बे दूर हों 1 अमुक्त्या यक्ष्मात्‌ दुरितादवद्याद्‌ द्रुहः पाशादू भ्राद्याश्नोद्मुक््थाः । भ. २१०६ क्षयरोए, पाप, रनिंधकर्म, द्ोहियोंके प!शण और जडूडने- वाल रोग आदिसे मे तुम्दें छुदाता हूं । दुष्या दूषिरसि, द्वेत्या द्वेतिरसि, मेन्या मनिरासि। हल. २।१११९ दोषको दूर करनेदारा, हपियारका हथियार, दन्चका चच्र त्‌ ( भास्मा ) है । दशवृक्ष मुच्चेम रक्षसो ग्राष्म अधि यैने अप्नाद् पररंसु। अथा एने वनस्पते जीवानां सोकमुन्नय 1 ण. २९७१ हे दशवृक्ष | दस राक्षप्ती गढियारोगते इस रोगीको दूर कर । जो रोग इथकों संधियार्मे पकुद रखता दे। दें चनस्पति | इसको जीवित छोगोंमिें ऊपर उठा ॥ नमः दीताय तकमने नमो रूराय 5, 75 शाचण




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