षटखंडागम - खंड 15 | Satkhandagama Bhag 15

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Satkhandagama Bhag 15 by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५१२ संकंमाणियोगद्दारं स्ञे»»%»म०-+कक् दुआ + मनन. थक मुणिसुव्ययदेसयरं पणप्तिय मुणिसुव्धर्य जिणं देव । संक्ममणिओगमिणं॑ जहासुअ॑ वपण्णइस्पामों ॥१॥ संकमे ति अणिओगदारे संकमो णिक्खिवियव्यों। त॑ जहा-- णामसंकमों इंवणसंकमी दवियसंकमों खेत्तसंकमो कालसंकमों भावसंकमों चेदि छव्विहों संकमो । तत्थ संकमंसदो णामसंकमो णाम। सो एसी त्ति अण्णस्स सरूप॑ बुद्भीए णिधत्तो इवणसंकमों णाम । दवियसंकमी दुषिधि आगम-णोआगमदबियसंकमों चेदि | आगमदबियसंकमो मुगमो। णोआगमदबियसंकमों जाणुगसरीर-मविय-तव्यद्रित्तद्वियसंकमभेदेण तिविहो । जाणुगसरीर-मवियदव्यसंकमा सुगमा । तब्बदिरित्तसंकमो दुषिहों णोकम्ससंकरमो कम्मसंकमो चेदि | णोकम्मसंकमो जहा मट्टियाए घडसरूवेण परिणामी | कम्म- संकमों थप्पो । एगवक्‍्खेत्तरस खेचंतरगमण्ण खेत्तसंकमो णाम | किरियाविरहिदसरस खेत्तस्स कर संकमो ९ ण, जीव-पोग्गलाणं सकिरियाणं आधेगरे आधारोवयारेण लड्/ेखेत्तववएसाणं संकमुवलंभादो । ण च खेत्तस्स संक्रमबबहारों अप्पजिद्धों, उड़ढ़छोगो संकंतो त्ति मुनियोंके उत्तम चरित्रका उपदेश करनेवाले मुनिसुब्रत जिनेन्द्रको नमस्कार करके श्रुतके अनुसार संक्रम-अनुयोगद्वारका वर्णन करते हैं. ॥ १ ॥ संक्रम इस अनुयोगद्वारमें संक्रमका निक्षेप किया जाता है। बह इस प्रकारसे-- नामसंक्रम, स्थापनासंक्रस, द्वव्यसंक्रम, क्षेत्रसंक्रम, फाल्संक्रम और भावसंक्रमके भेदसे संक्रम छह प्रकारका है। उनमें 'संक्रम” यह शब्द नाससंक्रम कहलाता है । वह यह है? इस प्रकार अन्यके स्वरूपको बुद्धिमें स्थापित करना, यह स्थापनासंक्रम हे । द्रव्यसंक्रम दो प्रकारकां है--- आगसद्र॒व्यसंक्रम और नोआगमद्रव्यसंक्रम | इनमें आगमसद्ग॒व्यसंक्रम सुगम है। नोआगसद्र॒व्यसंक्रम ज्ञायकशरीर, भव्य और तदूव्यतिरिक्त द्रग्यसंक्रमके भेदसे तीन प्रकार है । इनमें ज्ञायकशरीर और भव्य द्वव्यसंक्रम सुगम हैं। तदू््यातरिक्त नोआगसद्गव्यसक्रम दो प्रफारका है-- नोकमसंक्रम और कर्मसंक्रम । नोकसंसक्रम- जैसे सिट्टीका घट स्वरूपसे परिणमनं। कर्मसंक्रमको अभी स्थगित किया जाता है । एक क्षेत्रके क्षेत्रान्तरको ग्राप्त होनेका नाम छ्ेत्रसंक्रम है। शंका-- क्षेत्र तो क्रियासे रहित है, फिर उसका क्षेत्रान्तरमें गमन कैसे सम्भव है २ ससाधान-- नहीं, क्योंकि आधेयमें आधारका उपचार करनेसे सक्रिय जीव और पुदूगर्ोंकी क्षेत्र! संज्ञा सम्भव है और उनका संक्रम पाया ही जाता है। दूसरे, क्षेत्रके संक्रमका व्यवहार अग्नसद्ध भी नहीं हे, क्‍योंकि, ऊध्वेछलोक संक्रान्त हुआ, ऐसा व्यवहार पाया जाता है। १ अ-काप्रत्योः 'बद्ध), ताप्रती 'ब (छू ) द्ध! इति पाठः।




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