भास की भाषा सम्बन्धी तथा नाटकीय विशेषताएँ | Bhas Kee Bhasha Sambandhee Tatha Natakeey Visheshataen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वियय-प्रवेश १३ ही धात्री के द्वारा शय्नागार मे प्रवेश का सकेत करा दिया है। वात्स्यायत से भार की प्राचीनता मे और भी सहयोग प्राप्त होने का प्रमाण यह है कि कामसूत्र में अहिल्या, दकुन्तला तथा अविमारक की कथाओं का सकेत मिलता है तथा वात्स्यायन के समय इन्दी- कथाओं की लोकप्रियता का आभास भी प्राप्त होता है। पदरचात्‌ मे अश्वघोष ने अहिल्या को बुद्धचरित ४॥७२ तथा दकुन्तला को बुद्धचरित ४1२० में तथा कालिदास ने भी इन दोनो का वर्णन किया है। अविमारक की कथा बाद के साहित्य में लुप्त-सरि हो गई है । यदि कतिपय विद्वान्‌ अहिल्या तथा शकुन्तला के कथानक को महाभारत से गृहीत भी मानें, तथापि अविमारक की कथा में भास की मौलिक उद्भावना है । वात्स्यायन के काल के सम्बन्ध में निम्नाकित तथ्य सहायक होगे । वात्स्यायन के कामसूत्र मे चोल राजा का कील के द्वारा चित्रसेना गणिका के बध का वर्णन प्राप्त होता है । कुतल शातकर्ण शातवाहन ने करतंरी से मलयवती को मारा । कुपाणि: नरदेव ने चित्रलेखा को काणा कर दिया। उपर्यक्त तीनों सन्दर्भ पाण्ड्य राजा के समय के प्रमाणित हो जाते हैं । चोल राजा का समय स्मिथ द्वारा लिखित इतिहास पृष्ठ ४८० पर ए० डी० ५०-१२० निर्दिप्ट किया है। १२० ए० डी० के पश्चात्‌ १८० ए० डी० में ६० वर्ष के बाद इस वंश का राजा हुआ। स्मिथ इतिहास पृष्ठ २२१ के अनुसार कुन्तल १२८ ए० डी० में गद्दी पर बैठा । अतः वात्स्यायन कील, कर्तरी तथा कुपाणि नरदेव से परिचित थे। और इनका समय १४० ए० डी० से २०० ए० डी० तक अवश्य निश्चित किया जा सकता है । कालिदास भी इसी समय में रहे होगे, क्योंकि वात्स्यायन' की प्रतिच्छाया शाक्‌- तलम मे प्राप्त होती है । अतः वात्स्यायत १४०-२०० ए०डी० तथा कालिदास भी इसी समय के अनुमानित होने से भी भास इनसे पूर्व के ही होते हैं । ३. भास तथा मनु धर्मशास्त्र सम्बन्धी ग्रंथों में आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बोधायन, आइवलायन, विष्ण॒स्मृति, गौतम, वशिष्ठ धर्मसूत्र आदि में प्राचीनतम ग्रंथ मनुस्मृति*है । इनकी शैली १. रतियोगे हि कीलया गणिका चित्रसेनां चोलराजों जधान |--काम०अधि० २, अध्याय ७, सूतर८ २. कतेया कंतलः शानकरणि: शातवाइनः महादेवी मलयवती |--काम०अवि० २, अध्याय ७, सूत्र २६ ३. नरदेवः कुपारिः विद्धया दुष्प्रयुकया नदीं चित्रलेखां कार्ां चकार | “एकीम० अधि० २ अध्याय ७ सूच ३०. ४. काीलि०--शुश्रपस्व गुरुन्‌ कुछ प्रियसखीर्दात्त सपत्नीजने | भतु वप्रकृतापि रोषणतया मा सम म्तोर्ष गम: ॥--शाकु० चतुर्थ अंक ४० कम--श््श्नगरिवयां, तत्पारतंत्यम अनुत्तरवादिता | भोगष्वनुत्सेक परिजने दाक्तिण्यम्‌ | ःे “कीम० अधि० ४ खुत्र ३७-३१ न




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