समयसार टीका | Samayasaar Teeka
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
358
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)छा, | भूमिका | ० अिखट *
हजयश कक 0:२5 5य5 5५३० १० हदरद का ९:८४ २६
सुख शांति अपना स्वभाव होनेपर भी हमें प्राप्त नहीं है इसमें कारण हमारा अस्वस्थ,
भठुद्, विकारी और मोही होना है । नैसे किप्ती रोगीकों जब अपने रोग शमन करनेकी
इच्छा होती है तब वह किसी वैच्के पास जाता है| प्रवीण वेध उसकी परीक्षा कर उसको रोग
होनेका कारण कह उप्तको प्रतीति दिला फिर रोगका इलान बताता दे | रोगी उस उपायपर
विश्वास करके जब स्वये औषधि सेवन करता है तब धीरे २ अच्छा भोर स्तर हो नाता है।
इसी तरह सुख शांतिका इच्छुक नब श्री गुरुके पास जाता है तब श्री गुरु उसके सुख शांति-
में बाधक किन्हीं जड़ कर्मोका वन्धन है ऐसा बताकर उन वन्धनोंसे मुक्त होनेका उपाय
बताते हैं | नेसे वैद्य उपकार वृद्धि होनेपर भी विना स्वय॑ ऑपधि सेवनके रोगी अच्छा
नहीं होता, उसी तरह श्री गुरुके चित्तमें महान उपकार वृद्धि होते हुए भी जब तक शिष्य
स्वयं बंधसे सुक्त होनेका उपाय नहीं करता तब तक कभी भी मुक्त नहीं हो सक्ता | जिन्होंने
मोह और उसके परिवार-नानाप्रकारके कर्मोको विजय कर लिया है ऐसे लिनके सिद्धान्त या
जैनमतमे आत्माको अनादि कालकी परम्परासे लगे हुए इस कर्म रोगको नइमूलसे खोदे
नेके हेतुसे नीचे लिखे सात तत्वोंका जानना और उन पर प्रतीति छाना बतलाया गया है---
जीव, अजीव. आश्रव, बंध, संबर, निजेरा, और मोक्ष ।
ये मूल प्रयोगनभूत तत्त्व हैं | क्योंकि जीवसे आपका, अनीवसे अपने साथ मिन कर्म
शरीर आदिका सम्बन्ध है उनका, आश्रवसे कर्मोके आकर्षण होनेके कारणोंका, बंधसे उनके
बंध अथात् आत्माकी सत्तामें ठहर जानेका, संबरसे आश्रवके कारणोंको रोकनेका, निर्मरासे
' बंधके शनेः शनेः छेदनेका, तथा मोक्षसे पूर्ण बंधमुक्त होनेका ज्ञान होता है | अर्थात् जीव,
अनीवसे में कौन हे, पर कौन हैं इनका; आश्रव, वंधसे अखस्थ या रोगी या कर्मेबंधन युक्त
होनेका; सेवर, निर्मरासे रोगका इलाम करनेका; तथा मोक्षसे निरोग या स्वस्थ अवस्थाका
ज्ञान होता है |
हरएक सुखके वांछक प्राणीको इन सात तत्त्व अथवा पुण्य, पाप जो कर्मके दो
भेद हैं इनको लेकर नो पदार्थोका अच्छा ज्ञान करना चाहिये। इन्हींका यथार्थ ज्ञान सो
ही जैन सिद्धान्त या मिज सिद्धान्तका ज्ञान है। .
. य्यपि इस महान अंभरमें इन्हीं ९ पदाथौका व्यास्यानं है तथापि बास्तवमें इसमें उस
निनरा तत्त्का ही वर्णन है निसमें हितार्थीको आत्मज्ञान करके उसी आत्माका ध्यानमई तप
करना पड़ता है। आत्म! जो जगतक्ो परोक्ष हो रद्द है उसको प्र्कक्ष करके ऐसा दिखा
देना कि मानो वह तुम्हारे हाथपर रक्खा हुआ एक गुरावका पुष्प है भिप्तको 'तुम प्रत्यक्ष
देख देखकर उ्तकी सुगन्धसे संतोपी हो रहे हो, इस ग्ंथका मुख्य काम है | इसीसे यह्
कहना ठीक है कि यह अन्य साक्षात् मुक्ति वा सच्चे आनन्दके अनुभवका हार है | यह ग्रन्थ
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