तत्त्वार्थ - श्लोकवर्त्तिकालंकार भाग - 2 | Tattvarth Shlokavartikalankar Bhag - 2

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Tattvarth Shlokavartikalankar Bhag - 2  by माणकचंद जी कौंदेय - Manakachand Ji Kaundey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(० तज्ार्थचिन्तामाणः धनप्रयो ननयोरथामिप्रायो मोहोदयादवास्तवं॑ एवं. ग्रक्षीणमोहानामुदसीनानामित मद स्व पर्न अ्योजन चेति संप्रत्ययानुपपत्ते! | छुवणदिदेशकालनरान्तरापेक्षायां पनग्रयो- जनल्वाग्रतीतेबस्तुघमंस्य तदयोगात्सुवर्णत्वादिवदिति केचित्‌ | . ., ह यहा काई कह रह हू का वन आर भ्याजनम अर्थ समझ टन॑का आभप्राय रखना मोहनीय कर्मक उदयते होता हैं | अतः वास्तविक ही नहीं हे | उदासीन साधु मुनियोक्ते जेंसे यह, मेरा पपना धन हैं, यह मेरा प्रयोजन है, इस प्रकार ज्ञान होना नहीं बनतां है, तेसे ही जिनका ः ऐसे बट दनिमोहनीय कर्म उपद्म या क्षयोपशम रूपसे नष्ट हो गया है ऐसे चौथ पांचवे आदि गुणस्थान- नै य ५) वाले जीवोके भी यह मेरा घन और मेरा क्‍भ्रयोजन, ऐसे ज्ञानोंका वर्नना भंछें प्रकार युक्तिसिध्द नहीं है | दूसरी वात यह है कि किसी किसी देशम छुबण, चांदी आदि द्र॒ब्योंकी घेनपना और अग्रोजनपना नहीं प्रतीत किया जाता है अथांत्‌ दरिद्व देशोंमें पुण्यहान व्यक्तियोंकी अपेक्षासे सुवणकों धन माना गया हैं | सोगममियोंमें यथा सुदर्शन मेरुंपर जानेबाछे जीत्रोंकी तथा देचोंकी दृश्में:खुवरणका था विशेष मेल्य नहीं है | मरुत्थर्म दुष्काठ-पडनेपर कई अंबसरोम चांदी, सोना छुछंभ हो गया.था किंतु-दुर्लम हो रहे अन्न-नछके बिना सहस्नों मनुष्य बृत्युमुखमें प्राप्त हों गये, थे। कई धनके त्थछोंपर या भूमिमें चींठा चींठी धनके ऊपर चढते बैठते-हैं। वे उन रुपयों, भूषणों, फांतोंकों घन ही नहीं समझते हैं । हां, संचित अन्नकणोंकों पूर्ण घन मानते हैं| तथा किन्हीं दूसरे समयोंमें थानीं छुपमलुपम, छुपम, -सुपमदुःपम इन भोगभूमि काछोंमें यहां मी सुबर्ण धन नहीं. माना जाता था | एवं अब भी यहां अतीव पुण्यश्ञाठी पुरुष या ढुसरे न्‍्यारे वीतराग साथु आत्माओंकी अपेक्षासे सुवर्णकी धनपना ओर प्रयोजनपना प्रतीत नहीं होता हैं। अब मी अनेक पदार्थ ऐसे हैं, जो कि कडेके समान फेक दिये जाते हैं | किंतु दूसरे देश, काछ और व्यक्तियोंकी .अपेक्षास वे अधिक मूल्यकऋरे हैं | बनमें रहनेवाढी भीठनी गज-मुक्ताओंका तिरकार कर गोंगचियोंसे अपने आभूषण बनाती हैं | जिन हजारों आमकी गशुठल्योकों हम यों ही कूडेमें फेक देते हँ,. किसी समय दस रुपया व्यय करनेपर भी बह प्राप्त नहीं होती हैं । नीमके पत्ते यहांपर बहुत मिलते हैं, किंतु देशान्त- सेमें वे मल्यसे पुडियो्म वेचे जाते हैँ | जंगढमें सक्डों जडी, बूटियां खडी हुईं हैं. जिनकों +के पशु पक्षी भी मक्षण नहीं करते हैं, वे ही न जाने किन किन .रोंगोंकों दूर कंरनेकी शक्तियां रखती हैं| छुंवर्ग आदि रसायन बनानेमें-भी उनका उपयोग हो सकंता है ।यदि- थे सहस्नों रुपये तोछे बिके तो भी. उनका मूल्य न्यून ही हैं | जो खेतकी मिट्टी, गेह, चना, जा, फल, फछ, खाण्ड-आदिको पैदा कर सकती हैं और जो जलवायु याँही इधर उधर बिखर रहे हैँ, वे रसायन शात्रकी इश्सि सबर्ण; हीरा, माणिक, पन्नासे भी अधिक मृल्यके हैं | सुवर्णसे भूख दूर नहीं होती,-प्यास नहीं' बुझती प्राण-बायु नहीं वनती है, अन्न भी नहीं उपजता-है | अतः बस्तुके श्रेमीकी अपेक्षासे विचारा . जावे तो धन और प्रयोज़नपना उस, वस्तुका स्वभाव नहीं है, जैसे तक सुवर्णकों सुवर्णपना: वा रस, सत्ध _ सन >5




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